मनुष्य और प्रकृति को एकाकार करता है छठ महापर्व

बिहार, झारखंड व पूर्वांचल के प्रसिद्ध महापर्व छठ से अब पूरा देश परिचित है. जहां कहीं भी बिहार, झारखंड व पूर्वांचल के लोग बसते हैं अपने साथ छठ की पवित्र खुशबू जरुर लेकर जाते हैं.  छठ पर्व की परंपराओं को गौर से देखा जाए तो हम जानेंगे कि वास्तव में यह परमपवित्र त्योहार हमें प्रकृति के साथ एकाकार होने का संदेश देता है.

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यह मनुष्य को प्रकृति से जोड़ने का त्योहार है. छठ पर्व को पूरी तरह प्रकृति संरक्षण की पूजा मानें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. मनीषियों ने सूर्योपासना के महत्व और प्रभाव को बताते हुए जब छठ पूजा की परंपरा शुरू की होगी तो उनके जेहन में पर्यावरण संरक्षण का विचार सबसे ऊपर रहा होगा. इस पर्व में मनुष्य अपनी जननी प्रकृति के बेहद करीब पहुंच जाता है.

पर्व के चार दिनों में वह किसी और की उपासना नहीं करता बल्कि स्वयं को जीवन देने वाली प्रकृति में ही देवत्व को स्थापित करता है. इसका पहला संदेश है साफ-सफाई. छठ के मौके पर सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है. घरों के साथ-साथ गलियां, सड़कें, रास्ते, बागीचे यहां तक कि नदियों और जलाशयों की भी सफाई कर दी जाती है. गांव के पोखर और कुएं तक साफ कर हो जाते हैं.

कंगन घाट

आज पूरी दुनिया में जल और पर्यावरण संरक्षण पर जोर दिया जा रहा है. बिहार व पूर्वांचल के लोगों ने सदियों पूर्व इसके महत्व को समझा और यही कारण है कि छठ पर्व पर नदी घाटों और जलाशयों की सफाई की जाती है तथा जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. सूर्य की छाया पानी में साफ-साफ दिखाई पड़नी चाहि. संदेश साफ है कि जल को इतना निर्मल और स्वच्छ बनाइए कि उसमें सूर्य की किरणें भी प्रतिबिंबित हो उठे. मौजूदा दौर में जल प्रदूषण प्राणियों के जीवन के लिए एक बड़ा खतरा माना जा रहा है.

छठ पर्व के केन्द्र में कृषि, मिट्टी और किसान हैं. धरती से उपजी हुई हर फसल और हर फल-सब्जी इसका प्रसाद है. मिट्टी से बने चूल्हे पर और मिट्टी के बर्तन में नहाय-खाय, खरना और पूजा का हर प्रसाद बनाया जाता है. बांस से बने सूप में पूजन सामग्री रखकर अर्घ्य दिया जाता है. बांस का बना सूप, दौरा, टोकरी, मउनी तथा मिट्टी से बना दीप, चौमुखा व पंचमुखी दीया और कंद-मूल व फल जैसे ईख, सेव, केला, संतरा, नींबू, नारियल, अदरक, हल्दी, सूथनी, पानी फल सिंघाड़ा , चना, चावल (अक्षत), ठेकुआ इत्यादि छठ पूजा की सामग्री प्रकृति से जोड़ती है.

छठ का प्रसाद बनाती व्रती

छठ अपने अंदर इन महत्वों को समेटे हुए आज भी इन संदेशों को प्रदर्शित करता है. स्ट्रॉबेरी, एप्पल, पाइनेपल, कीवी जैसे विदेशी फलों वाले जमाने में भी ईंख, गागर नीबू, सुथनी, शरीफा, कमरख, शकरकंद जैसे देसी फलों का अस्तित्व छठ की वजह से ही कायम है. मुगलई, थाई, चाइनीज, इटालियन फूड के जमाने में भी खीर, कचरी, रोटी, चावल, दाल, कद्दू, कोहड़ा, अगस्त्य के फूल जैसी साग-सब्जियों का महत्व बरकरार है, यह छठ की ही देन है.

अर्घ्य देती व्रती

छठ महापर्व महिलाओं के अस्तित्व को भी सम्मानित करता है. हमारे देश में ऐसा छठ के अतिरिक्त कोई दूसरा ऐसा पर्व नहीं है, जिसे सधवा(शादीशुदा महिलाओं), विधवा, कुंवारी, गर्भवती आदि सभी स्त्रियां एक साथ कर सकती हों. बाकी सभी त्योहारों में अलग-अलग श्रेणी की महिलाओं के लिए अलग नियम होते  हैं लेकिन छठी मैया के दरबार में सभी महिलाएं एक समान हैं.

छठ सामाजिक समरसता का भी संदेश देता है. जिस डोम समाज को लोग अंत्यज मानते हैं, उनके बनाए हुए सूप के बिना छठ पर्व संपन्न हो ही नहीं सकता है. कुम्हार द्वारा बनाये गये मिट्टी के चूल्हे, बर्तन, दीये आदि की इस पर्व में विशेष अहमियत होती है. इनके अलावा नाइन, माली, आदि की भी अहम भूमिका होती है. छठ केवल महिलाओं एवं पुरुषों द्वारा ही नहीं, बल्कि किन्नर समुदाय द्वारा भी उतनी ही श्रद्धा से किया जाता है. यह इकलौता त्योहार है जिसमें किसी पुरोहित की जरुरत नहीं होती.

स्वच्छ मन से इस व्रत को करने वाला प्रकृति और परमेश्वर से एकाकार हो जाता है. मनुष्य और ईश्वर के बीच किसी माध्यम की जरुरत नहीं होती. इसी कारण सभी धर्म, जाति और संप्रदाय के लोगों द्वारा अपनी इच्छाशक्ति से छठ पर्व का अनुष्ठान पूरी श्रद्धा एवं विधि-विधान से किया जाता है. 

पटना के महावीर घाट का नजारा

लोकआस्था के कारण छठ पूजा जितनी पवित्र है उससे कहीं अधिक विज्ञान ने उसे तार्किक और फलदायी बनाया है. बड़े-बूढ़ो व बच्चों के सान्निध्य में किया जाने वाला यह व्रत परिवारिक संरचना को सम्बल प्रदान करता है है. भक्ति और अध्यात्म से भरपूर इस पर्व के लिए न बड़े पंडालों की जरूरत होती है और न ही बड़े-बड़े मंदिरों की. इसके लिए न ही मूर्तियों की जरूरत होती है. यह पर्व बांस से बनी टोकरी, मिट्टी के बर्तनों, गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूं से बना प्रसाद, और कानों में शहद घोलते लोकगीतों के साथ जीवन में भरपूर मिठास घोलता है. नदी, नहर, सरोवर, पोखर, तालाब जैसे जलाशयों की ओर हाथ में पूजन-सामग्री लेकर जाती भीड़ में मानो जात-पांत व अमीर-गरीब का भेद कहीं विलीन हो जाता है.


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