रोहतास के अर्जुन का मिशन है हमारे राज्य के गौरेया को बचाना, बिहार के ‘स्पैरो मैन’ के नाम से जाने जाते हैं

आस-पास दिखाई देने वाली गौरैया अब लुप्त हो रही हैं. पर्यावरण के जानकारों के मुताबिक घरों के बनावट में तब्दीली, बदलती जीवन-शैली, खेती के तरीकों में परिवर्तन, प्रदूषण, मोबाइल टाॅवर और दूसरे वजहों से ऐसा हो रहा है. गौरैया पर संकट इतना बड़ा है कि इसे बचाने के लिए अब हर साल 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मनाया जाता है. इस मौके पर मिलिए सैकड़ों गौरैया को अपने आस-पास बसाने-चहचहाने वाले अर्जुन सिंह से.

ऐसा पिछली बार कब हुआ था कि सुबह आपकी नींद गौरैया की चीं..चीं..चीं की मीठी आवाज से टूटी थी. आप में से शायद ज्यादातर को यह याद ताजा करने के लिए दिमागी कसरत करनी पड़े. दरअसल, घर-आंगन में चहकते-फुदकते आसानी से दिख जाने वाली गौरैया आज संकट में है. शहर क्या गांवों में भी अब यह मुश्किल से दिखाई देती है.

लेकिन रोहतास जिले के अर्जुन सिंह के साथ मामला कुछ अलग है. या यूं कहें कि उलट है. वे बताते हैं, ‘अगर सुबह जगने में देर होती है तो गौरैया इतनी शोर करती हैं कि मुझे जग जाना पड़ता है.’ दरअसल, गंभीर संकट झेल रहे गौरैया पक्षी रोहतास जिले के मेड़रीपुर गांव और उसके आस-पास के इलाकों में सैकड़ों की संख्या में आबाद हो गए हैं.

ऐसा मुमकिन हुआ है अर्जुन सिंह की कोशिश से. वे करीब दस साल पहले अपने पिता और पत्नी के मौत के बाद अपनी उदासी और अकेलापन दूर करने के लिए गौरेयों के नजदीक आए.अर्जुन बताते हैं, ‘खाना खाते वक्त कुछ गौरैया पास तक आती थी. तब बस यूं ही मैं उनकी तरफ खाना फेंकने लगा. गौरैयों को खाना मिलने लगा तो वे रेगुलर मेरे पास जुटने लगीं.’

अर्जुन सिंह के घर की दीवारों पर बने घोंसलें

इसके बाद साल 2007 के शुरुआती महीनों की एक और घटना के कारण गौरैया अर्जुन सिंह के और करीब आ गए. उनके आंगन में गौरेया का एक बच्चा अपने घोंसले से गिर कर घायल हो गया. अर्जुन ने गौरैया के उस घायल बच्चे की मरहमपट्टी की. अलग से एक पिंजरे में रखकर उसकी देखभाल की. इसके बाद खाने के समय आने वाले गौरैया उनके घर में आकर धीरे-धीरे बसने भी लगे.

साल बीतते-बीतते करीब सौ के करीब गौरैया उनके घर और उसके आस-पास आबाद हो चुकी थीं. इससे उन्हें शांति और खुशी मिली और वे गौरेया को नियमित सुबह-शाम दाना-पानी देने लगे. उसके संरक्षण में जुट गए. इसके बाद उन्होंने घर में गौरेया के लिए घोंसला बनाना शुरु किया. उनके बड़े से कच्चे-पक्के घर में ऐसे घोंसले बनाने के लिए जगह की कमी भी नहीं थी. अभी उनके घर में करीब आठ सौ घोंसले हैं.

उन्होंने दीवारों के बीच-बीच से ईंट हटाकर और उसके आस-पास जरुरी चीजें उपलब्ध कराकर ये घोंसले तैयार किए हैं. अर्जुन अभी और तीन सौ घोंसले तैयार करने में जुटे हैं. इसके साथ ही उन्होंने घर की छत, उसकी चारदीवारी और दूसरी कई जगहों पर गौरेया के प्यास बुझाने का इंतजाम भी कर रखा है. वे अब गौरैयों के संरक्षण के लिए गांव के बच्चों को भी समझा रहे हैं.

साथ ही वे बच्चों को समझाते हैं कि गौरेया और उसके बच्चों को कोई परेशान न करें. कोई घायल गौरैया या उसका बच्चा मिले तो उसे मेरे पास लेकर आए. अर्जुन के मुताबिक गौरेयों को आबाद करने में बच्चों ने भी खास भूमिका निभाई है. गौरेया से दूर रहने पर अर्जुन अब बैचैनी महसूस करते हैं. गौरैया से उनका इस कदर जुड़ाव हो चुका है कि वे एक तो अब लंबे वक्त के लिए कहीं जाते ही नहीं और अगर कुछेक दिन के लिए गए भी तो घर में कोई-न-कोई गौरैयों का ख्याल रखता है.

वे दिन में तीन बार गौरैयों को दाना-पानी देते हैं. एक समृद्ध किसान होने के कारण उनके पास पक्षियों को खिलाने को पर्याप्त अनाज भी होता है. अर्जुन बताते हैं, ‘साल भर में वे करीब 12 क्विंटल धान, करीब चार क्विंटल खुद्दी (चावल का टुकड़ा) और घास का बीज खिलाते हैं. ये सब मैं अपने खेती के उपज से आसानी से जुटा लेता हूं.’

अर्जुन गौरेया की घटती संख्या की बड़ी वजह वह नए बनावट के घरों को मानते हैं. अर्जुन के मुताबिक पुराने तरह के घरों में ऐसे छोटे-बड़े छेद होते थे जिनमें गौरैया रह लेती थी. लेकिन अब शहर क्या गांवों में भी ऐसे घर कम बनते हैं.

उनके मुताबिक कटाई के मशीनी तरीके से भी गोरैया के लिए भोजन की कमी हो रही है. अर्जुन बताते हैं, ‘पहले हाथ से कटाई होने पर पक्षियों के लिए खेतों में बहुत कुछ गिरा रह जाता था लेकिन अब हारवेस्टर की कटाई से उनका भोजन छिन गया है. कीटनाशकों के प्रयोग ने भी गौरेया से कीट-पतंग छीना है.’

अर्जुन के मुताबिक वृक्षारोपण के तहत आम, पीपल, बरगद जैसे पेड़ लगाए जाने चाहिए जिन पर गौरैया या दूसरे पक्षी घोंसला बना सकें. गौरैया बचाने के लिए आम लोग क्या कर सकते हैं? इसके जवाब में वे कहते हैं, ‘गौरैया के लिए थोड़ा वक्त निकालने पर ये फिर से घरों के आस-पास चहचहाना शुरु कर सकती हैं. उनके लिए सुबह-शाम निश्चित समय और जगह पर दाना-पानी दें. उनसे दिल से जुड़े. एक बार गौरैया अगर पास आना शुरु कर दे तो वो आस-पास आबाद भी हो जाती है.’

गौरैया से अर्जुन सिंह को शांति-खुशी के साथ-साथ एक पहचान भी मिली है. आज अर्जुन बिहार के, ‘स्पैरो मैन’ के नाम से जाने जाते हैं. गोरैया को 2013 में बिहार का राज्य पक्षी भी घोषित किया गया है. एक समय जब बिहार सरकार का पर्यावरण एवं वन विभाग सरकारी आवासों में गोरैया के लिए घोंसला लगाने की योजना पर काम कर रहा था तब उसने इस काम में अर्जुन सिंह की मदद भी ली थी. अर्जुन इस समय राज्य वन्य प्राणी परिषद के सदस्य भी हैं.



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