नहाय-खाय के साथ चार दिवसीय महापर्व चैती छठ शुरू, खरना कल

लोकआस्था, सामाजिक समरसता, साधना, आरधना और सूर्योपासना का चार दिवसीय महापर्व चैती छठ का अनुष्ठान आज नहाय-खाय के साथ शुरू हो गया है. आज सुबह व्रतियों ने गंगा नदी में स्नान किया और गंगाजल भरकर घर ले गईं. गंगाजल से व्रतियों ने नहाय-खाय का प्रसाद कद्दू भात बनाया और भगवान को नमन कर प्रसाद को ग्रहण किया. उसके बाद परिवार के बाकी लोगों ने भी प्रसाद ग्रहण किया. कल छठव्रती खरना की पूजा करेंगी, गुरूवार को व्रती भगवान भास्कर को पहला अर्घ्य देंगी. फिर शुक्रवार को उदयीमान भगवान सूर्य को अर्घ्य के साथ महापर्व संपन्न हो जाएगा.

बता दें कि वैज्ञानिक दृष्टि से छठ महापर्व अपने आप में अनूठा है. नहाए-खाए के दिन बनने वाले कद्दू में लगभग 96 फीसदी पानी होता है. इसे ग्रहण करने से कई तरह की बीमारियां खत्म होती हैं. वहीं चने की दाल बाकी दालों में सबसे अधिक शुद्ध है. जबकि खरने के प्रसाद में ईख का कच्चा रस, गुड़ के सेवन से त्वचा रोग, आंख की पीड़ा, शरीर के दाग-धब्बे समाप्त हो जाते हैं.

षष्ठी को पूरी तरह निराहार व निर्जला रहा जाता है. दरअसल वसंत और शरद ऋतु संक्रमण का काल माना जाता है. इसमें बीमारी का प्रकोप ज्यादा होता है. इसलिए बीमारी के प्रकोप से बचाव के लिए आराधना व उपासना पर जोर दिया गया है. चैती छठ कार्तिक छठ की तरह ही होता है, मगर यह छोटे पैमाने पर मनाया जाता है. इसमें डाला पर ठेकुआ के साथ ही फल और मेवों का प्रसाद चढ़ाया जाता है. यह मूल रूप से पूर्वी भारत में मनाया जाता है, मगर दिल्ली, मुंबई जैसे भारत के अन्य शहरों में भी इसकी खासी रोनक देखने को मिलती है.

नहाए-खाए के दिन व्रती नाखनू वगैरह को अच्छी तरह काटकर, स्वच्छ जल से अच्छी तरह बालों को धोते हुए स्नान करते हैं. इसके बाद नए वस्त्र धारण कर अपने हाथों से साफ-सुथरे व नई माटी के चूल्हे पर अपना भोजन स्वयं बनाकर सूर्यदेव को नैवेद्य देकर भोजन करने के पश्चात् उसी नैवेद्य को प्रसाद रूप में अपने परिवार के सभी सदस्यों को खिलाते हैं. भोजन में चने की दाल, लौकी की सब्जी तथा चावल या पहले से ही सुखाए व साफ किए गए गेहूं या चावल के घर में पीसे आटे से निर्मित रोटी शामिल है. जिसे ‘अख़ीन’ कहते हैं. तली हुई पूरियाँ पराठे सब्जियाँ आदि वर्जित हैं. इस दिन को व्रती लोग ‘नहाए-खाए’ कहते हैं. इस दिन व्रती सिर्फ एक ही समय भोजन करते हैं.

जबकि दूसरे दिन सुबह स्नानोपरान्त उपवास का प्रारम्भ हो जाता है. व्रती संध्याकाल पुन: स्नान करके अपने देवता घर में जाकर उपरोक्त ‘अख़ीन’ आटे से रोटी तथा दूधचावल व गुड़ या चीनी से खीर बनाते हैं. इन्हीं दो चीजों को पुन: सूर्यदेव को नैवैद्य देकर उसी घर में ‘एकान्त’ करते हैं अर्थात् एकान्त रहकर उसे ग्रहण करते हैं. परिवार के सभी सदस्य उस समय घर से बाहर चले जाते हैं ताकी कोई शोर न हो सके. एकान्त से खाते समय व्रती हेतु किसी तरह की आवाज सुनना पर्व के नियमों के विरुद्ध है. पुन: व्रती खाकर अपने सभी परिवार जनों एवं मित्रों-रिश्तेदारों को वही ‘खीर-रोटी’ का प्रसाद खिलाते हैं. इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को ‘खरना’ कहते हैं.

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