शाहाबाद क्षेत्र की होली

होली मतलब फगुआ, फागुन. होली का हर क्षेत्र में अपना अलग महत्व है. सिर्फ इसके स्वरूप और मनाने के तरीके भिन्न हैं. शाहाबाद क्षेत्र में मनाई जाने वाली होली का अंदाज सबसे खास है. यहां आज भी गांवों में फागुन महीना शुरू होते ही होली की धमक सुनायी पड़ने लगती है.

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गांव के चौपालों व दलानों में सामूहिक रूप से फगुआ गाने की परंपरा अपने आप में निराली है. इस दौरान हर जगह हंसी ठिठोली, मीठी मनुहार, हास-परिहास के साथ प्रेम, भाईचारा, सौहार्द, समानता एवं सामाजिक एकता दिखती है. वीररस की होली ‘बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर बंगला में उड़ेला गुलाल…, वीर भगत सिंह रंग में रंगादी, चुनरी राजा देशवा के खातिर… आदि होली गीत पर लोग झूम उठते हैं.

यहां होली के एक दिन पहले सम्मत(होलिका) जलाई जाती हैं. गांव-मुहल्लों के लोगों की टोलियाँ पुआल और डालियों से बनी होलिका जिसे सम्मत कहाँ जाता है, को लेकर पहले से निश्चित चौक-चौराहा पर जाते हैं. जहां हवन के बाद होलिका (सम्मत) में आग लगाई जाती है. सभी लोग सम्मत की पांच बार परिक्रमा करते हैं और कहते हैं “होले रे होलेरी”. सम्मत जलाने के समय गेहूं, जौ, चने की बालियों का भूनना, खाना और प्रसाद के रूप में परिवारों बांटा जाता है, जो कृषि यज्ञ का नवीनतम रूप है. इसे ही होलरी खेलना कहते हैं. जब सम्मत जल जाता है, तब वहीं से लोग ढोलक झाल पर फगुआ(होली) गाते गाँव में आते हैं.

सम्मत जलाते लोग

अगले दिन लोग सुबह-सुबह धूल, कीचड़ से होली खेलकर, दोपहर में पानी वाला रंग खेला जाता है. फिर अपनी तथा अपने मवेशियों की सफाई करते हैं. वहीं लोग घर मे आपस मे मार-मज़ाक कर भी होली खेलते हैं लेकिन ससुराल मे होली खेलने का विशेष महत्व है. शाम में सभी लोग साफ या नए कपड़े पहनते हैं. एक-दूसरे को अबीर-गुलाल लगाते हैं तथा होली भी गाई जाती है. इस दिन के बाद से गांवों में चैती गाईं जाती है.

होली खेलते हुए बच्चों की टोली

वहीं होली का ख़ास पकवान माल-पुआ और गुज़िया है. हर घर में छोले (जिन लोगों के यहाँ माँसाहारी खाना बनता है वहाँ मटन), दहीबड़ा भी मूल रूप से होली के दिन ज़रूर बनता है.

बता दें कि बिहार, बंगाल, एमपी, गुजरात, असम, यूपी, मणिपुर, महाराष्ट्र के जनजाति भील समाज होली के माध्यम से कुंवारे युवाओं को जीवन साथी चुनने का अवसर प्रदान करता है. नाच-गान के दौरान कोई युवक पसंद की युवती के गाल पर रंग लगा देता है और वह भी शर्माती हुई उसके गाल पर गुलाल मल देती है, तो समाज इसे शादी की अनुमति दे देता है. इस परंपरा को ‘भगौरिया’ के रूप में जाना जाता है. ब्रज की लट्ठमार होली जग प्रसिद्ध है. विभिन्न क्षेत्रों में होली का महत्व किसी से कम नहीं है. पर भोजपुरी क्षेत्र में होली की जो परंपरा है, यह अपने-आप में अद्वितीय हैं.

 

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