आज भिखारी ठाकुर की जयंती है। भिखारी को तरह-तरह से याद किया जा रहा है। तरह-तरह के आयोजन हो रहे हैं। यह होना भी था। यह भिखारी भी अपने ही समय में जान गये थे। इसलिए उन्होंने लिखा था एक बार- ‘अबहीं नाम भइल बा थोरा, जब ई छुट जाई तन मोरा. सेकरा बा दनाम होई जईहन, कवि, सज्जन, ज्ञानी गुण गईहन।’
भिखारी पर ढेरों लोगों ने काम किया, कर रहे हैं लेकिन आज हम उनके जयंती पर जानते हैं उस एक व्यक्ति को, जिसने भिखारी ठाकुर पर पहले पहल काम करना शुरू किया था। भिखारी के रहते भिखारी के नायकत्व को लिखित रूप में उभारना शुरू किया था। यह काम करनेवाला एक बिहारी ही था। नाम था महेश्वराचार्य। अपने समय में हिंदी का एक बड़ा नाम। जितने काम हिंदी में किये उन्होंने उस आधार पर उन्हें भी बड़े नामवालों में शुमार होना चाहिए था लेकिन हिंदी की दुनिया की ठसक कइयों को निगलते रहती है। सो वे गुमनाम ही गुजर गये। आज से सात साल पहले उनका निधन हुआ।
हिंदी में महेश्वराचार्य ने बहुतेरे शोध कार्य किये। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे दिग्गजों के साथ भी। वे सरस्वती जैसी पत्रिका के सहायक संपादक थे। लेकिन उन सबको परे भी कर दें तो उनका एक काम ही उन्हें अमरत्व प्रदान करने के लिए काफी रहा है। जिसके लिए बिहारी और भोजपुरी समाज को हमेशा कृतज्ञ रहना चाहिए।
यह साल भिखारी ठाकुर के लिए बहुत ही खास है। उनके नृत्य और नाटक मंचन के सौ साल पूरे हुए हैं। आज भिखारी का नाम देस और देश की परिधि लांघ कई मुल्कों में फैल चुका है। वे हिंदी इलाके में लोककर्म के बड़े अवलंबन बन चुके हैं। स्थापित हो चुके भिखारी ठाकुर के अलग-अलग आयामों पर लेखन करने, दूसरी कला विधाओं से भिखारी के नाम पर सृजन की अपनी धार दिखाने वालों की लंबी फौज बन चुकी है। बहुतेरे अब भी बेकरार हैं, जो भिखारी पर व्याख्या करने को बावला रहते हैं। यह उफान अब हालिया दो-तीन दशकों से है, जब भिखारी स्थापित होने लगे या हो चुके।
लेकिन 1944 के आसपास जब भिखारी जिंदा थे तो कुछ लोग ही थे, जो उनकी क्षमता और प्रतिभा का आकलन कर उनके बारे में सार्वजनिक मंचों से बातें कर रहे थे। डंके की चोट पर। तब अधिकांश संभ्रांतमिजाजियों के बीच भिखारी महज एक लौंडा और नचनिया के दायरे में सिमटे हुए थे। और बेशक, उस दौर में महेश्वराचार्य ही थे, जिन्होंने भिखारी पर लगातार लेखन कर साहित्यिक दुनिया के ठसकबाजों और समाज के संभ्रांतों के बीच लौंडा और नचनिया भिखारी को बेजोड़-अद्भुत कलाकार के साथ लोकनायक के तौर पर स्थापित करना शुरू किया।
महेश्वराचार्य ने उसी समय भिखारी पर खूब लिखा। अलग-अलग आयामों के साथ, अलग-अलग अंदाज में। इतने लेख कि बाद में वह पुस्तक रूप में आया, जो भिखारी ठाकुर पर पहली प्रकाशित पुस्तक हुई। वह पुस्तक ‘जनकवि भिखारी ठाकुर’ नाम से छपी। भिखारी ठाकुर पर महेश्वराचार्य की ‘भिखारी’ नाम से पुस्तक भी प्रकाशित हुई। महेश्वराचार्य ने नचनिया भिखारी पर लिख-लिखकर एक पगडंडी तैयार की, बाद में भिखारी के व्यक्तित्व, कृतित्व और नेतृत्व क्षमता पर रिसर्च करनेवाले सामने आते गये और पगडंडी धीरे-धीरे चौड़े रास्ते में बदल गयी। उस चौड़े रास्ते पर अब भी नित नये पथिक चल रहे हैं। लेकिन आज भी महेश्वराचार्य की रचना को ही सबसे पहला आधार माना जाता है।
तत्कालीन शाहाबाद जिला के शाहपुर प्रखंड के भरौली गांव के एक स्वर्णकार परिवार में जनमें महेश्वराचार्य को याद करने की और कई वजहें हैं। उन्होंने हिंदी में दर्जन भर से अधिक मौलिक शोध पुस्तकें लिखीं। भोजपुरी में अन्य कई पुस्तकों की रचना की। सबको छोड़ भी दें तो क्या यही काफी नही कि वे पहले सर्जक थे, जो अनगढ़ लोक के प्रणेता भिखारी को अपनी लेखनी से गढ़ने की कोशिश में लगे और मजबूत आधार प्रदान कर दिये।