रोहतास की धरती के महान सपूत निशान सिंह ऐसे अमर बलिदानी हैं, जिन्हें 1857 की क्रांति को धधकाने के आरोप में 7 जून 1858 को सासाराम के गौरक्षणी मुहल्ले में तोप से उड़ा दिया गया। वीर योद्धा निशान सिंह का जन्म रोहतास जिले में शिवसागर प्रखंड के बड्डी गांव के रहने वाले जमींदार रघुवर दयाल सिंह के घर हुआ था।
बाबू निशान सिंह ने अंग्रेजी सरकार द्वारा पकड़े जाने पर जो बयान दिया था, उसके अनुसार उस समय उनकी उम्र 60 वर्ष थी और बाबू वीर कुंवर सिंह से पुरानी जान पहचान थी। निशान सिंह सासाराम और चैनपुर परगनों के 62 गाँवों के जागीरदार थे। 1857 में जब भारतीय सेना ने दानापुर में विद्रोह किया तब वीर कुंवर सिंह और निशान सिंह ने विद्रोही सेना का पूर्ण सहयोग किया एवं खुलकर साथ दिया फलस्वरूप विद्रोही सेना ने अंग्रेज सेना को हरा दिया। ये अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का आगाज व भारत की स्वतंत्रता का शंखनाद भी था। निशान सिंह को सैन्य संचालन में महारत हासिल थी और वे महान क्रांतिकारी वीर कुंवर सिंह के दाहिने हाथ थे।
जब अंग्रेजों ने बनारस एवं गाजीपुर से और सेना को आरा भेजा था, तब तक कुंवर सिंह और निशान सिंह आरा से बाँदा जा चुके थे। यहाँ से ये लोग कानपूर चले गए। तदुपरांत अवध के नवाब से मिले जिसने इनका भव्य स्वागत किया तथा इन्हें आजमगढ़ का प्रभारी नियुक्त किया गया। क्षेत्र का प्रभारी होने के कारण इन्हें आजमगढ़ आना पड़ा जहाँ अंग्रेज सेना से इनकी जबरदस्त मुठभेड़ हुई। लेकिन अंग्रेजों की सेना इस वीर के आगे नहीं टिक सकी और इस लड़ाई में अंग्रेजों की करारी शिकस्त हुई। अंग्रेज जान बचाकर भाग खड़े हुये और आजमगढ़ के किले में जा छुपे जहाँ निशान सिंह की सेना ने उनकी घेराबंदी कर ली जो कई दिन चली। बाद में गोरी सेना और विद्रोहियों की खुले मैदान में टक्कर हुई जिसमें जमकर रक्तपात हुआ।
इसके बाद बाबू वीर कुंवर सिंह और निशान सिंह की संयुक्त सेना ने अंग्रेजों पर हमला कर दिया और उन्हें बुरी तरह परास्त किया और बड़ी मात्रा में हाथी, ऊंट, बैलगाड़ियाँ एवं अन्न के भंडार इनके हाथ लगे। इसके बाद अन्य कई स्थानों पर इन्होंने अंग्रेज सेना के छक्के छुड़ाये। एक समय बाबू कुंवर सिंह एवं निशान सिंह अंग्रेजों के लिये खौफ का प्रयाय बन चुके थे। इन दोनों के नाम से अंग्रेज सैनिक व अधिकारी थर-थर कांपते थे। अंत में विजयी सेना के साथ जगदीशपुर जाने के क्रम में बाबू वीर कुंवर सिंह का हाथ, तोप के गोले से जख्मी हुआ, जिसे उन्होंने तलवार से काटकर हटा दिया था। इसके बाद भी अंगेजों के विरूद्ध संघर्ष जारी रखने का उनका संकल्प ज्यों का त्यों था। यहाँ भी बाबू निशान सिंह उनके साथ थे। लेकिन उस समय बाबू निशान सिंह बहुत ही बीमार और शारीरिक रूप से दुर्बल थे। ऐसी स्थिति में उन्हें पालकी पर बैठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाया जाता रहा। किन्तु शारीरिक अशक्तता के बावजूद उनके स्वाभाविक साहस और उत्साह में किसी प्रकार की कमी नहीं थी।
इसी समय कैप्टन ले:गैण्ड के अंतर्गत एक अंग्रेज सैनिक टुकड़ी को जगदीशपुर में 23 अप्रैल 1858 में भारी हानि उठानी पड़ी। इस विजय के तीन दिन बाद बाबू वीर कुंवर सिंह की मृत्यु हो गई। बाबू कुंवर सिंह के दिवंगत हो जाने के बाद और अत्यंत कमजोरी के कारण बाबू निशान सिंह को अपने जन्मस्थल बड्डी गाँव आने की इच्छा हुई। उन्होंने चार लोगों को बुलाया और खटिया पर बैठकर अपने गाँव आए। वहां उनकी सारी सम्पति जप्त कर ली गई थी। गाँव में उनके पट्टीदार भंजन सिंह ने कहा कि आप अपना तो सब कुछ लुटा चुके, क्या हमें भी लुटवाइएगा? तब उन्होंने रोहतास जिले स्थित डुमरखार के पास जंगल में आश्रय लिए।
अंग्रेजों का गुप्तचर जाल पहले से ही बिछा हुआ था। उन्हें इसकी जानकारी हो गयी कि निशान सिंह निकट के ही जंगल में छिपे हुए हैं। कमजोरी के हालत में वे कहीं जा भी नहीं सकते थे। 5 जून 1858 के लगभग बाबू निशान सिंह सासाराम लेवी के डिप्टी सुपरिंटेंडेंट कैप्टन नोलन द्वारा बड्डी गाँव के निकट ही पकड़े गए। चूँकि वहां कोई आयुक्त उपस्थित नहीं था इसलिए उन्हें सासाराम के ऑफिसर कमांडिंग के हवाले किया गया। बाबू निशान सिंह पर कोर्टमार्शल द्वारा मुकदमा चलाए जाने का आदेश दिया गया। अंततः सासाराम के गौरक्षिणी में 7 जून 1858 को सबेरे उन्हें तोप के मुंह पर रखकर गोले से उड़ा दिया गया। लेकिन कहते हैं मातृभूमि पर प्राण न्योछावर करने वाले मरते नहीं अमर हो जाते हैं। ऐसे ही निशान सिंह देश के लिए अमर है।
साभार- डा. श्याम सुन्दर तिवारी