कचरी/पेंहटा/गुरमीयह, ये तीन नाम तो जानते ही हैं हम. बचपन से इसे खाने की आदत रही है. स्वाद में तिकछ होता है. लेकिन आदत लग जाये और स्वाद भा जाये तो फिर बूझिये की लत का ही मामला हो जाता है. बचपन मे नाना को रोजाना खाते देख आदत लगी थी. वे चावल दाल के साथ तो खाते ही थे, कभी कभार शाम को चाय के पहले भी कचरी भुजवाते-छनवाते थे. साल भर का कचरी का कोटा एक बार ही खरीदते थे. जम्होर दुमुहान(पुनपुन बटाने संगम) के सकरात(मकर संक्रान्ती) मेला से.
औरंगाबाद जिले के जम्होर में लगनेवाला यह मेला भी अपने आप मे बहुत खास, विशिष्ट और एकदम अलहदा किस्म का मेला है. शहरों में अब फ़ूड फेस्ट वगैरह का चलन है जबकि जम्होर मेला तो न जाने कब से खान पान के लिए ही लगता रहा है, मशहूर रहा है. कचरी, सुथनी और गुडही लाई का मेला. यही तीन चीजें मशहूर रही है. वैसे पुड़ी यहां किलो से तौलकर मिलता था, यह भी याद है.
लंबे समय बाद उस मेला में जाना हुआ. न जाने कितने सालों बाद उस संगम पर नहान हुआ. कलकल छलछल पानी. ढेरो बदलाव दिखे. कई नये मंदिर बन गये हैं. पुनपुन नदी के नाम पर पुनपुन माई का मंदिर भी पहली बार देखा. ब्रह्मा मंदिर तो है ही पहले से. बहुत कुछ बदलने के बाद भी नही बदला तो सिर्फ कचरी का जलवा. कचरी यानि पेंहटा का बाजार.
सुथनी, लाई की दुकानें कम दिखीं. तौलकर पुड़ी अब नही मिलता. कचरी की दुकानों को और ज्यादा संख्या में, ज्यादा व्यवस्थित रूप में देखा. एक तरफ पूरी मंडी की तरह. हर दुकानदार के पास कम से कम पांच क्विंटल माल. वेरायटी अलग-अलग और रेट भी अलग-अलग. सबसे बढिया वाला 400 रुपये प्रति किलो. इतने सालों बाद शानदार जानदार कचरी देखते ही मन तड़फड़ा गया. पांच किलो के खरीददार बने.
अब अफसोस हो रहा कि और क्यों नही ले लिया था. पांच किलो तेजी से खत्म होने की राह पर है. थोड़ा ही भुजता हु तवे पर. मुश्किल से दस पीस. लेकिन बचपन की पसंदीदा चीज वर्षों बाद हाथ लगी है और सामने है तो अब रोज ही चाहिए होता है. मन नहीं मानता सामने ट्रांसपैरेंट डब्बे में पड़े देख. झारखण्ड और गया के जंगली इलाके में यह खूब होता है. व्यापारी इसको तोड़कर फिर काटते हैं और उसके बाद सुखाते हैं. तब बाजार में लाते हैं.