रोहतास के सोनाचूर चावल को मिलेगा जीआई टैग, डीएम के पहल पर तैयारी शुरू; स्वाद व सुगंध का है राजा

धान के कटोरा कहे जाने वाले रोहतास जिले में उत्पादित खुशबूदार सोनाचूर चावल को को जिसने भी खाया है, वह खासियत जानता है. इसे ना केवल स्वाद और सुगंध का राजा कहा जाता है बल्कि अपनी खास कीमत के कारण इस किस्म को किसानों का एटीएम भी कहा जाता है. अब इसे जल्द ही जीआई टैग मिल सकता है. भौगोलिक संकेतक मिलने से सोनाचूर चावल को ग्लोबल पहचान मिलेगी और बड़े मात्रा में इसकी निर्यात भी होगी, जिसका सीधा लाभ किसानों को मिलेगा. सोनाचूर चावल को वैश्विक पहचान के लिए डीएम के पहल पर विभागीय स्तर पर जीआइ टैग दिलाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है.

डीएम धर्मेंद्र कुमार ने कहा कि सोनाचूर चावल को जीआई टैग दिलाने के लिए प्रशासनिक स्तर पर काफी तेजी से प्रयास किया जा रहा है. इस संबंध में डीएओ को साक्ष्य के साथ सभी रिपोर्ट को तैयार कर उसे जमा करने को कहा गया है. उम्मीद है कि जिले की विशेष पहचान वाले सोनाचूर चावल को जल्द ही वैश्विक पहचान मिलेगी. इससे किसानों को बेहतर बाजार मिलने के साथ ही आय में भी बढ़ोतरी होगी. टैग मिल जाने के बाद जिले का किसान ही उस ब्रांड का वास्तविक दावेदार हो जाएगा.

जिला कृषि पदाधिकारी सुधीर कुमार राय ने बताया कि सबसे अधिक चावल की उत्पादकता के साथ जिला राज्य भर में हर बार पहले पायदान पर रहता है. यहां के दो लाख 65 हजार 533 किसान हर वर्ष औसतन 12 से 13 लाख मीट्रिक टन चावल का उत्पादन करते हैं. इनमें धान की प्रमुख किस्में नाटी मंसूरी, कतरनी तथा सोनाचूर चावल होता है. किसान बेचने के लिए नाटी मंसूरी व कतरनी की खेती करते हैं साथ ही सोनाचूर चावल को खुद के उपयोग के लिए रखते हैं. जिले में दो लाख 31 हेक्टेयर सिंचित भूमि में हर वर्ष धान का उत्पादन होता है. कुल धान के अनुपात में लगभग 20 प्रतिशत सोनाचूर की खेती हर वर्ष होती है.

कोचस प्रखंड के किसान श्रीनाथ सिंह के मुताबिक सोनाचूर धान की खेती में अन्य धान की फसल के अनुपात में काफी कम लागत खर्च आता है. एक बीघे में सोनाचूर धान लगभग 12 से तेरह क्विंटल हो जाता है. इसके अलावे इसका बाजार भाव भी अन्य चावलों से कहीं अधिक है. मंसूरी व कतरनी चावल का अधिकतम बाजार मूल्य 25 सौ से तीन हजार होता है, जबकि सोनाचूर चावल का रेट औसतन 65 सौ से सात हजार है. इस चावल की सबसे बड़ी खासियत इसका सुगंध है जो लोगों को काफी आकर्षित होता है. इस चावल का प्रयोग लोग शादी, ब्याह या अन्य किसी आयोजन में लोग अत्यधिक करते हैं. हालांकि यह फसल पक कर तैयार होने में अन्य धानों की अपेक्षा दस से पंद्रह दिन अधिक समय लेता है. इस वजह से रबी की खेती प्रभावित होने के डर से किसान इसकी कम मात्रा में ही खेती करते हैं. इस उत्पाद को जीआई टैग मिलाने के बाद बेहतर बाजार मिलाने से उत्पादन दर में भी काफी वृद्धि होगी.

बता दें कि जीआई टैग(जियोग्राफिकल इंडिकेशंस) अप्लाई करने से पूर्व यह प्रमाणित करना आवश्यक होता है कि अमुक उत्पाद के लिए टैग क्यों दिया जाए. उत्पाद की यूनिकनेस के बारे में उसके ऐतिहासिक विरासत के बारे में. उसी उत्पाद पर यदि कोई दूसरा दावा करता है तो आप कैसे मौलिक हैं यह साबित करना होगा. जिसके बाद संस्था साक्ष्यों और संबंधित तर्कों का परीक्षण करती हैं, मानकों पर खरा उतरने वाले को जीआई टैग मिलता है. जानकारी के अनुसार सोनाचूर को जीआई टैग मिलने के बाद यह बिहार का छठवां कृषि उत्पाद होगा. इससे पहले मखाना, कतरनी चावल, जर्दालू आम, शाही लीची और मगही पान को जीआई टैग मिल चुका है.

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