रोहतास जिले के नासरीगंज से लगभग 7 किलोमीटर उत्तर-पूरब में स्थित देव मार्कंडेय सांस्कृतिक विरासत और आस्था का संगम है. देव मार्कंडेय गांव के दक्षिण-पश्चिम में एक टीले पर शिवमंदिर है. इसमें प्राचीन शिवलिंग स्थापित है. सावन मास चढ़ते ही औघड़ दानी भोलेनाथ शिव की नगरी के रुप में प्रचलित अति प्राचीन देव मार्कण्डेय के शिवालय में भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है. देवमार्कंडेय का मंदिर भी प्राचीन सूर्य केंद्र है. यहां स्वयंभू शिवलिंग के अतिरिक्त अन्य शिवलिंग, नंदी, एकमुखी शिवलिंग, चतुर्मुख शिवलिंग, पार्वती व उमा-माहेश्वर की प्रतिमा भी स्थापित है. इसके अलावा यहां सूर्य, विष्णु, दुर्गा, चामुंडा, सरस्वती व गणेश की प्रतिमाएं स्थापित हैं. यहां प्रत्येक वर्ष श्रावण माह में कांवरिये जल चढ़ाते हैं. चूंकि यह स्थान सूर्य केन्द्र भी है इसलिए छठ के अवसर पर भारी मेला लगता है.
केपी जायसवाल शोध संस्थान के शोध अन्वेषक डॉ. श्याम सुंदर तिवारी बताते हैं कि देव मार्कंडेय में पहले टीले से लगभग 100 मीटर पूरब में दूसरा टीला है जो पूरब से पश्चिम 200 फीट लंबा तथा उत्तर से दक्षिण 120 फीट चौड़ा है. इसके ऊपर उत्तर तथा पश्चिम में नए मंदिर बनाए गए हैं. उत्तरी-पश्चिमी कोने के मंदिर में चतुर्मुख शिवलिंग स्थापित है. जहां से दक्षिण में पूर्वाभिमुख सूर्यमंदिर है. इस मंदिर में सूर्य की बड़ी प्रतिमा स्थापित है. यहाँ एक और सूर्य देव की छोटी प्रतिमा रखी गई है. सूर्यदेव के दायें में त्रिमूर्ति है. सूर्य के बायीं ओर उमा-माहेश्वर स्थापित हैं. उत्तरी दीवाल में दुर्गा तथा चामुंडा की प्रतिमाएं हैं. दक्षिणी दीवाल में दो गणेश प्रतिमाएं स्थापित हैं. इस मंदिर से दक्षिण में एक और शिवमंदिर है जिसमें शिवलिंग और नंदी स्थापित हैं. टीले के दक्षिणी भाग में उत्तराभिमुख विष्णु मंदिर है, जिसमें 5 विष्णु तथा दो सूर्य की प्रतिमाएं स्थापित हैं. मंदिर के बाहर गणेश की दो प्रतिमाएं दीवाल में लगी हैं. इस मंदिर से पूरब में एक और नया मंदिर है जिसमें पार्वती तथा सरस्वती की प्रतिमाएं स्थापित हैं. टीले के दक्षिणी-पश्चिमी भाग में एक मुखी शिवलिंग स्थापित है. इस प्रकार यहां पंचायतन मंदिरों का रूप था.
उन्होंने बताया कि टीला के पास स्थित तालाब को सूरज पोखरा कहा जाता है. इस गांव से उत्तर पड़सर में एक देवी की प्रतिमा स्थापित है. यहां यत्र-तत्र उत्तरी काली चमकीली मृद्भांड परंपरा के अवशेष प्राप्त होते हैं, जो 600 से 200 ई0 पूर्व के हैं. इसके अतिरिक्त यहां से काले, लाल और काले-लाल मृद्भांडों के भी अवशेष मिलते हैं. यहां बुकानन को एक शिलालेख मिला था, जो चेरो राजा फुदी चंद्र या फूल चंद्र का था, किंतु यह न तो कनिंघम को मिला और न ही गैरिक को. यह लेख आज भी श्रुतिलेख के रूप में लोगों को याद है, जो इस प्रकार है:- ‘‘श्री मद्विक्रमवत्सरे निगीदते शून्ये युगे चंद्रिके, अर्धांगिनी फूल चंद्र नामना च गोभावनी। जैष्ठै वै श्रावणो शशांकदिवसे शुक्लातिथिपंचमी, साध्वीधर्मरताचकार जीर्णोद्धार च देवालया।’’ इसके अनुसार विक्रम संवत् 120 या 63 ई. में राजा फूल चंद्र की पत्नी गोभावनी द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया था.
उन्होंने कहा कि यहाँ की प्रतिमाएं गुप्तकाल से लेकर परवर्ती गुप्तकाल तक की हैं. पहले यह स्थान शैव केंद्र था, बाद में यह विष्णु और सूर्य देव का हो गया. सूर्य केन्द्र होने कारण यहां शाकलद्वीपी ब्राह्मणों का आधिक्य है. इसके बाद यह स्थान विष्णु, गणेश और देवी को समर्पित होता हुआ पंचायतन मंदिर का रूप धारण कर लिया. उन्होंने बताया कि देव मार्कंडेय में देखते-देखते काफी बदलाव हो चुका है. दोनों टीलों के बीच आज विद्यालय भवन बन चुका है. जहां प्रतिमाएं खुले आकाश के तले थीं वहाँ आज मंदिर बन चुके है. एक परिवर्तन इस बार और देखा कि प्रतिमाओें को सुनहले रासायनिक रंग से रंगा गया है. इससे सूर्य की प्रतिमा के चेहरे वाले भाग पर दरारें स्पष्ट दिख रहीं थी. एक स्थान पर पत्थर टूट कर निकल चुका था. कहें तो यह अनमोल प्रतिमा खंडित होने के कगार पर है.