मुहर्रम यानी ताजिया का त्योहार. यह जब-जब आता है, मुझे दो गांव बहुत शिद्दत से याद आते हैं. मन वहीं चला जाता है. एक मेरे दादा का गांव, दूसरा नाना का. दोनों बिहार में. दादा का गांव रोहतास जिला मुख्यालय सासाराम से ठीक सटे कुम्हऊ में और नाना का मूल गांव बोधगया से सटे कोशिला में. दोनों बिगड़ैल गांव. अव्वल दरजे के बिगडै़ल. जाति का जहर यहां बचपने से रगों में दौड़ता है. ननिहाल कोशिला तो फिर भी कुछ मामले में ठीक रहा है, लेकिन अपना गांव यानी कुम्हऊ तो हिरोइंचियों-घनघोर नशेड़ियों और उससे उपजनेवाले रोजमर्रा के तनाव में समाये रहनेवाले गांव के रूप में भी मशहूर रहा है कभी. चोरों-पॉकेटमारों के गांव के रूप में भी.
दो दशक पहले तक जान ले लेना-जान दे देना बड़ी बात नहीं होती थी यहां. अब भी बात-बेबात हथियारों को लहरा देना शान की तरह समझा जाता है और हर कुछ दिनों पर लड़ाई-झगड़ा भी आम ही है. कह सकते हैं, कुछेक बिंदुओं को छोड़ कर विशालकाय आबादी वाला मेरा गांव बदनामी के पर्याय के रूप में स्थापित करने वाले तमाम गुणों से परिपूर्ण रहा है. फिर भी ताजिया का त्योहार आते-आते न जाने मन अपने गांव की ओर तेजी से भागता है. घर के सामने के अलाउद्दीन मियां की तलाश में, जिन्हें बचपने से नसीबन कहता रहा हूं और वे मुझे जहूरन. अलाउद्दीन, बड़क, छोटक, नसीम, मुन्ना वगैरह-वगैरह मिला कर, बंटवारे-दर-बंटवारे के बावजूद कुल जमा दर्जन भर घर भी तो नहीं हो सके हैं अब तक मुसलमानों के मेरे गांव में, लेकिन मेरे गांव का ताजिया सासाराम का अब भी सबसे मशहूर ताजिया है.
सासाराम में ताजिया का मतलब क्या होता है, यह उस इलाके के लोग जानते हैं. मुरादाबाद, कुम्हऊ, बाराडीह और भी न जाने कितने गांवों के भव्य ताजिया पहुंचते हैं यहां पहलाम होने. गजब की सजावट वाले. मोतियों की लड़ी के बीच झूलती लाइट से चमकदार ताजियाओं का हुजूम ही तो जुटता है. शाम से ही सासाराम में कड़वर कत्ता-कड़वरकत्ता की धुन के साथ तासे की आवाज, गदका का आपस में टकराना, लाठी की भंजाहट माहौल को बदल देता है और पूरी रात अलग ही माहौल में रहता है सासाराम. न जाने कितने गांव से, कितनी भारी संख्या में जुलूस लिये पहुंचते हैं लोग, लेकिन उन सबके बीच मेरे गांव की ताजिया की बात अलग है सबसे. मेरे गांव का ही ताजिया सासाराम में बड़े ताजिया के रूप में जाना जाता है.
दस घर मुसलमानों के हैं मेरा गांव में, लेकिन जब ताजिया का जुलूस निकलता है, तो सैकड़ों की संख्या आसानी से पहुंच जाती है. अब कुछ कम हुआ है नहीं तो याद है बचपने की कि मेरे गांव में रहनेवाले तमाम हिंदुओं के घर में आफत-सुल्तानी के समय देवी-देवता-डीहवार-ब्रहम बाबा के साथ ताजिया निकालनेवाली मान्यता भी सबसे लोकप्रिय थी.
दर्जनों ताजिया निकलते थे गांव से. मलीदा वाला जो प्रसाद जैसा होता है, वह सभी हिंदुओं के घर में पहुंचता था. मेरे गांव में हिंदू बच्चा तासा बजाना जानता है, गदका खेलना जानता है. मेरे गांव में मोहर्रम आज भी मुसलमानों का त्योहार भर नहीं, गांव की प्रतिष्ठा की बात है. पूरे गांव का सामूहिक पर्व है. पूरे गांव के लोग जुलूस की चिंता करते हैं, इंतजाम करते हैं और भारी संख्या में पहुंच कर बड़े ताजिया का जो तमगा पीढ़ियों से कुम्हऊ गांव के ताजिया को मिला हुआ है, उसे बरकरार रखना चाहते हैं. बहुत ही बिगड़ैल गांव को अब तक सांप्रदायिक राजनीति की लपटें झुलसा नहीं सकी हैं. मेरे गांव में तो फिर भी आठ-दस घर मुसलमान हैं, जिनके बड़े आयोजन की तैयारी की चिंता कर विशाल गांव की बड़ी आबादी लगती है.
जैसे सासाराम के आसपास के पूरे इलाके में कुम्हऊ गांव के किस्से-कहानियां जानते हैं और किसी भी बिगड़ैल लड़के को गाली की तरह कहते हैं कि कुम्हऊ का लड़का हो रहा है का जी, उसी तरह बोधगया इलाके में रहनेवाले कोशिला के किस्से भी जानते हैं कि कैसे वहां बात-बेबात आजमा लिया जाता है एक-दूजे को. कितने अहूठ हैं वहां के लोग और किस तरह वहां जातीयता हावी है.
लेकिन इन दोनो गांवों की तमाम बुराइयों में यह सबसे खूबसूरत पक्ष भी है, यहां हिंदू-मुसलमान का बंटवारा नहीं हुआ है उस तरह से, जैसा कि देश के लगभग हर कोने में तेजी से हुआ है. यही कारण है कि, ताजियों के झलक से ही लोकाचार में आज भी ‘रामनगर की रामलीला, डोल डुमरांव, कोचस का कंसलीला व ताजिया सासाराम की कहावत मशहूर है.
बता दें कि, सासाराम में मुहर्रम के साथ नाल का इतिहास जुड़ा हुआ है. जानकार बताते हैं कि करबला की लड़ाई में हजरत अब्बास रजिया वल्लहों के घोड़े के नाल के टुकड़े सूफी संत अपने साथ लाए थे. उन्हीं टुकड़ों से नाल साहब की परंपरा का संबंध है. शहर में आधा दर्जन नाल साहब हैं. इनमें दो शाहजुमा, दो काले खां, एक शहजलालपीर व एक करबला में हैं.
मुहर्रम की सातवीं तारीख को नाल साहब खड़े किए जाते हैं. नौवीं-दसवीं तारीख को ताजिये के साथ इनका गश्त होता है. करबला के नाल साहब को छोड़ शेष पांचों नाल साहब का गश्त होता है. गश्त के पीछे मान्यता है कि हुसैन की सवारी का प्रतीक है. कहा जाता है कि शुरू में नाल साहब को बक्से में रखा जाता था. मुहर्रम के समय बक्शा रखने वालों को ये सपना आने लगा कि इन्हें खड़ा कर इनकी गश्त करायी जाये तभी से ये परंपरा शुरू हुई.