1540 से 1545 के बीच दिल्ली सल्तनत में अफगान शासक शेरशाह सूरी लोकप्रिय और न्यायप्रिय शासक रहे. सासाराम शहर की पहचान शेरशाह सूरी ने अपने शासनकाल में सबसे पहले रुपये की शुरुआत की थी. वहीं आज रुपया भारत समेत कई देशों की करेंसी के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है. माना जाता है कि शेरशाह सूरी ने अपने शासनकाल में जो रुपया चलाया था, वह एक चांदी का सिक्का था. इस सिक्के का वजन 178 ग्रेन (करीबन 11.534 ग्राम) था. शेरशाह सूरी ने तांबे और सोने का सिक्का भी चलाया. तांबे के सिक्के को उस समय दाम और सोने के सिक्के को मोहर कहा जाता था.
भारत में ब्रिटिश राज के दौरान भी यह प्रचलन में रहा. ब्रिटिश राज में इसका वजन 11.66 ग्राम था, और इसमें 91.7 प्रतिशत तक शुद्ध चांदी थी. शुरू में निजी बैंकों द्वारा बैंकनोट जारी किये जाने के क्रम में भी रुपया कहने का अर्थ सोने, चांदी के सिक्कों से ही था. एक तोला (10 ग्राम) चांदी से बना सिक्का एक रुपया कहलाता था, एक तोला सोना से बना सिक्का एक मोहर कहलाता था. सोने की एक मोहर का मूल्य 16 रुपये था, मतलब सोने के एक सिक्के (मोहर) के बदले चांदी के सोलह सिक्कों (रुपयों) का लेन-देन होता था. शेरशाह ने अपने शासनकाल में भारत में पोस्टल विभाग को भी विकसित किया. उन्होंने उत्तर भारत में चल रही डाक व्यवस्था को दोबारा संगठित किया, ताकि लोग अपने संदेशों को अपने करीबियों और परिचितों को भेज सकें.
बिहार के लोगों के लिए तो शेरशाह का नाम बहादुरी का प्रतीक है. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने कहा था कि मैं शेरशाह सूरी की तरह हूं, कम समय में मैंने भी बहुत काम कर लिए. नीतीश कुमार ने उनसे कई साल पहले ही कह दिया था कि शेरशाह सूरी मेरे आदर्श हैं. उनसे ही मुझे प्रेरणा मिलती है।शेरशाह का जन्म 1486 के आस-पास बिहार के सासाराम में हुआ था. हालांकि इसके जन्म वर्ष और जगह दोनों को लेकर मतभेद है. कई जगह ये कहा जाता है कि शेरशाह का जन्म हिसार, हरियाणा में हुआ था. साल भी बदल जाता है.
शेरशाह का नाम फरीद खान हुआ करता था. इनके पिता हरियाणा की छोटी सी जागीर नारनौल के जागीरदार थे. शेरशाह के दादा भी इब्राहिम खान सूरी नारनौल के जागीरदार हुआ करते थे. ये लोग पश्तून अफगानी माने जाते थे. सूरी टाइटल इनके अपने समुदाय सुर से लिया गया था. ऐसा भी कहा जाता है कि इनके गांव सुर से ये टाइटल आता है. कहा जाता है लों एक शिकार के दौरान बिहार के मुगल गवर्नर बहार खान पर शेर ने हमला कर दिया था. नौजवान अफगान फरीद ने उस शेर को मार गिराया और उसे नया नाम मिला, ‘शेरशाह’. शेरशाह ने दिल्ली का तख़्त अपनी बदौलत हासिल किया था. शेरशाह के 8 भाई थे. सौतली माएं भी थीं. शेर खान की घर में बनी नहीं, क्योंकि वो महत्वाकांक्षी थे. वो घर छोड़कर जौनपुर के गवर्नर जमाल खान की सर्विस में चले गए. वहां से फिर वो बिहार के गवर्नर बहार खान लोहानी के यहां चले गए. यहां पर शेरशाह की ताकत और बुद्धि को पहचाना गया. बहार खान से अनबन होने पर शेरशाह ने बाबर की सेना में काम करना शुरू कर दिया. वहीं पर उसने नई तकनीक सीखी थी जिसके दम पर बाबर ने 1526 में बहलोल लोदी के बेटे इब्राहिम लोदी और बाद में राणा सांगा को हराया था.
यहां से निकलकर फिर वो बिहार का गवर्नर बन गये. एक वक्त था कि मगध साम्राज्य इतना विशाल था कि सिकंदर भी हमला करने से मुकर गया था. पर बाद में धीरे-धीरे पावर सेंटर दिल्ली की तरफ शिफ्ट होने लगा था. शेरशाह ने जब बिहार की कमान संभाली तो कोई भी बिहार को पावर सेंटर मानने को तैयार नहीं था. शेर खान ने अपनी ताकत बढ़ानी शुरू कर दी. अपनी सेना तैयार करने लगा. 1538 में शेर खान धीरे-धीरे अपने कदम बढ़ाने लगा. बाबर की मौत के बाद हुमायूं बादशाह बना था. मुगल हिंदुस्तान छोड़कर वापस नहीं गए थे. जब हुमायूं बंगाल रवाना हुआ तो शेर खान ने उससे लड़ने का मन बना लिया. 1539 में बक्सर के पास चौसा में दोनों की भिड़ंत हुई. हुमायूं को जान बचा के भागना पड़ा. 1540 में फिर दोनों की भिड़ंत कन्नौज में हुई. वहां भी हुमायूं को हारना पड़ा. बंगाल, बिहार और पंजाब तीनों छोड़ के हुमायूं देश से ही भाग गया. शेर खान ने दिल्ली में सूर वंश की स्थापना कर दी. धीरे-धीरे उसने मालवा, मुल्तान, सिंध, मारवाड़ और मेवाड़ भी जीत लिया. हुमायूं 15 साल तक देश से बाहर रहा.
शेरशाह का केन्द्रीय प्रशासन अत्यंत मजबूत व विकासपरक था. महज पांच साल के शासन के दौरान उन्होंने नई नगरीय और सैन्य प्रशासन की स्थापना की. राजा को चार महत्त्वपूर्ण मंत्रियों की मदद मिलती थी. शेरशाह का साम्राज्य 47 सरकारों में विभाजित किया गया था. प्रत्येक सरकार कई परगनाओं में विभाजित थी. कई प्रशासनिक इकाइयाँ भी थीं जिन्हें इक्ता कहा जाता था. राज्य को औसत उत्पादन का एक-तिहाई हिस्सा प्राप्त होता था जिसका भुगतान नकद या फसल के रूप में किया जाता था. संपूर्ण खेती योग्य भूमि को अच्छी, मध्यम एवं खराब तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया था. शेरशाह सूरी ने कलकत्ता से पेशावर के बीच पुराने राजमार्ग ग्रांट ट्रंक रोड को पुन: चालू करवाया. शेरशाह ने सोनारगाँव से सिंध, आगरा से बुरहानपुर, जोधपुर से चित्तौड़ और मुल्तान से लाहौर तक चार महत्त्वपूर्ण राजमार्गों के निर्माण द्वारा संचार व्यवस्था को सुदृढ़ किया. पुलिस का पुनर्गठन कुशलता पूर्वक किया गया था जिसकी वजह से उसके शासन के दौरान अपराध कम होते थे. सैन्य प्रशासन का पुनर्गठन भी कुशलता से किया गया था. शेरशाह ने घोड़ों की ब्रांडिंग जैसे कई विचारों को अलाउद्दीन खिलजी से प्राप्त किया था. शासनकाल में न्याय व्यवस्था के तहत खुद अपने कबीले के लोगों, रिश्तेदारों एवं अन्य लोगों के बीच भेदभाव न करने और सत्ताधारी वर्ग तथा अन्य लोगों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों को रोकने पर विशेष बल दिया गया था. शेरशाह के शासन के तहत भूमि राजस्व प्रशासन को अच्छी तरह से संगठित किया गया था और भूमि सर्वेक्षण ध्यानपूर्वक किया जाता था. उसके राजस्व सुधारों ने राज्य के राजस्व में वृद्धि की.
नवंबर 1544 में शेरशाह ने कालिंजर पर घेरा डाला थे. वहां के शासक कीरत सिंह ने शेरशाह के आदेश के खिलाफ रीवा के महाराजा वीरभान सिंह बघेला को शरण दे रखी थी. महीनों तक घेराबंदी लगी रही. पर कालिंजर का किला बहुत मजबूत था. अंत में शेरशाह ने गोला-बारूद के प्रयोग का आदेश दिया. शेरशाह खुद भी तोप चलाता था. कहते हैं कि एक गोला किले की दीवार से टकराकर उनके खेमे में विस्फोट कर गया. जिसकी वजह से उनकी मौत हो गई. उन्होंने सासाराम शहर में पहले अपने पिता हसन खां के रौजा निर्माण का कार्य पूर्ण करा पुन: अपना रौजा का निर्माण कार्य शुरू कराया. लेकिन शेरशाह के मारे जाने के बाद इस मकबरे को पुत्र सलीम शाह सूरी ने पूरा करवाया. पानी के बीचोबीच स्थित शेरशाह का मकबरा पठान स्थापत्य कला का अदभुत नमूना है. शेरशाह द्वारा किये गए सुधार उसे एक बहादुर, बुद्धिमान, व्यवहार कुशल सैन्य प्रशासक, पैनी राजनीतिक परख एवं नगर प्रशासन में असाधारण कौशल और योग्यता रखने वाला व्यक्ति सिद्ध करते हैं. कई मायनों में शेरशाह के सुधारों की प्रभावशीलता के विषय में स्पष्ट रूप से कुछ कह पाना कठिन है.