पहाड़ की चढ़ाई, जंगल की सैर, प्राचीन स्मारक का भ्रमण और मां भवानी के दर्शन. यह सारे सुख एक साथ मिलते हैं मुंडेश्वरी धाम की यात्रा में. शायद यही कारण है कि पहाड़ के ऊपर बने इस इस सुंदर मंदिर में जो एक बार आता है, वह बार-बार आना चाहता है. वाराणसी और गया के बीच ग्रांड ट्रंक रोड पर सबसे पुराना मंदिर मुंडेश्वरी धाम की यात्रा को आमंत्रित करने वाले कई बोर्ड दिखेंगे.
कैमूर पहाड़ी के एकाकी शैल शिखर पर स्थित मुंडेश्वरी मंदिर भारतीय कला, संस्कृति और धार्मिक दिग्दर्शक के रूप में हजारों वर्षों से अचल है. सनातनी तीनों धर्म-धाराएं शैव, वैष्णव और शाक्त, यहां एकाकार हैं. पूर्वी भारत के कला केंद्रों में प्रमुख यह मंदिर बिहार के कैमूर जिला मुख्यालय भभुआ से लगभग 11 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में रामगढ़ के पास, पवंरा पहाड़ी के ऊपर स्थित यह प्राचीन मंदिर ही नहीं, तीर्थाटन व पर्यटन का जीवंत केन्द्र भी है.
पूर्ण रूपेण पत्थरों से निर्मित इस अष्टपहलदारमंदिर की चारों दिशाओं में चार दरवाजे हैं. दरवाजों पर द्वारपाल और देवी-देवता बने हुए हैं. पाखों पर सुंदर आकृतियां, तो चौखटबेल- बूटों से अलंकृत हैं. बाहरी भाग में उभरे हुए अंशों, विभाजित क्षैतिज लहरों के अतिरिक्त आलों, स्तंभों, छज्जों, घट, बेलों तथा गवाक्षतोरण अलंकरणों से इस मंदिर को शोभित किया गया है. मंदिर का बाहरी व्यास 40 फीट तथा भीतरी व्यास 20 फीट है.
बीच में चार स्तंभों के ऊपर मंदिर की सपाट छत टिकी हुई है. स्तंभों व मंदिर के बीच में विनितेश्वर शिव, पंचमुखी लिंग के रूप में, तो मां मुंडेश्वरी महिष पर आरूढ़ वाराही के रूप में पूर्वी द्वार के गलियारे में स्थापित हैं. पश्चिमी दरवाजे के बाहर नंदी हैं. मंदिर के आस-पास से कलश-अमालक, विखंडित मूर्तियां, कलाकृतियां तथा स्तंभ मिले हैं. इसमें शिव-पार्वती, गणेश, महिषासुरमर्दिनी मां दुर्गा, सूर्य, कार्तिकेय आदि प्रमुख हैं.
मुंडेश्वरी मंदिर का निर्माण कब हुआ, इस बारे में विद्वानों में मतभेद है. कुछ विद्वान इसे 635-36 ईस्वी, तो कुछ चौथी सदी का मानते हैं. बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद् के प्रशासक आचार्य किशोर कुणाल ने विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर इसकी तिथि 108 ईस्वी स्थापित की है. के.सी. पाणिग्रही के अनुसार इस मंदिर ने धार्मिक इतिहास के तीन काल खंडों को देखा है. यहां प्रारंभिक गुप्तकाल यानी चौथी सदी में भगवान नारायण का मंदिर था. बाद में इसमें सूर्य का समावेश हुआ. इस प्रकार यह मंदिर नारायण देवकुल का हो गया.
गुप्तकाल के अंतिम चरण में इस मंदिर में शिव, गणेश व शक्ति (पार्वती तथा दुर्गा) की पूजा होने लगी. तब यह मंदिर पंचायतन मंदिरों की श्रेणी में आ गया. अब यह एक देव समूह (निकाय) बन गया. बाद में हर्ष के समय इसमें विनितेश्वर शिव के इस (वर्तमान) मंदिर का समावेश हुआ. अंत में यहां देवी मुंडेश्वरी की स्थापना की गई. स्थानीय किंवदंती के अनुसार यहां से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित गढ़वटके चेरो राजा मुंड ने मुंडेश्वरी की स्थापना की थीं. मंदिर का शिखर नष्ट हो चुका है और इसकी छत नयी है. मंदिर में जाने के बाद ही यहाँ की भव्यता के बारे में अनुभव किया जा सकता. सबसे विशेष रूप से यहां स्थापित चतुर्मुखी शिवलिंग के रंग को सुबह, दोपहर और शाम में परिवर्तित होते हुए आज भी देखा जा सकता है. बता दें कि यहाँ से प्राप्त शिलालेख के कुछ टुकड़े भारतीय संग्रहालय, कोलकाता में मौजूद है.
मुंडेश्वरी मंदिर की बलि प्रथा का अद्भुत स्वरूप इसकी खासियत है. इस शक्तिपीठ में परंपरागत तरीके से बकरे की बलि नहीं होती है. केवल बकरे को मुंडेश्वरी देवी के सामने लाया जाता है और उस पर पुजारी द्वारा अभिमंत्रित चावल का दाना जैसे ही छिड़का जाता है वह अपने आप अचेत हो जाता है. बस यही बलि की पूरी प्रक्रिया है. इसके बाद बकरे को छोड़ दिया जाता है और वह चेतना में आ जाता है. यहां बकरे को काटा नहीं जाता है. यह मंदिर प्राचीन स्मारक तथा पुरातात्विक स्थल एवं अवशेष अधिनियम, 1958 के अधीन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा राष्ट्रीय महत्व का घोषित है.
बता दें कि मंदिर के अंदर पहुंचने के लिए पहाड़ को काटकर शेडयुक्त सीढियां और रेलिंगयुक्त सड़क बनायी गयी हैं. जो लोग सीढियां नहीं चढ़ना चाहते, वे सड़क मार्ग से कार, जीप या बाइक से पहाड़ के ऊपर मंदिर में पहुंच सकते हैं. मुंडेश्वरी धाम में श्रद्धालुओं का सालों भर आना लगा रहता है, लेकिन नवरात्र के मौके पर वहां विशेष भीड़ रहती है. मंदिर की लोकप्रियता हर दिन बढ़ रही है।यह हर उत्सुक पर्यटकों के लिए यात्रा के लायक है.
ऐसे पहुंचे: नजदीकी रेलवे स्टेशन भभुआ रोड (मोहनिया) है, जो करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर है. यह मुगलसराय- गया रेलखंड पर है. मोहनिया से बस या निजी वाहन से मुंडेश्वरी धाम पहुंच सकते हैं. नजदीकी हवाई अड्डा वाराणसी है, जो करीब 90 किलोमीटर दूर है.
लेख सहयोग- डॉ. श्याम सुंदर तिवारी