तीर्थाटन व पर्यटन का जीवंत केन्द्र है मुंडेश्वरी धाम

पहाड़ की चढ़ाई, जंगल की सैर, प्राचीन स्मारक का भ्रमण और मां भवानी के दर्शन। यह सारे सुख एक साथ मिलते हैं माँ मुंडेश्वरी धाम की यात्रा में। शायद यही कारण है कि पहाड़ के ऊपर बने इस इस सुंदर मंदिर में जो एक बार आता है, वह बार-बार आना चाहता है।

बिहार के कैमूर जिले के भगवानपुर प्रखंड में मौजूद यह प्राचीन मंदिर ही नहीं, तीर्थाटन व पर्यटन का जीवंत केन्द्र भी है। वाराणसी और गया के बीच ग्रांड ट्रंक रोड पर सबसे पुराना मंदिर मुंडेश्वरी धाम की यात्रा को आमंत्रित करने वाले कई बोर्ड दिखेंगे। यह देश के सर्वाधिक प्राचीन व सुंदर मंदिरों में एक है। इस मंदिर में भगवान गणेश, सूर्य और विष्णु की मूर्तियां भी हैं। कैमूर पर्वत की पवरा पहाड़ी पर 600 फीट की उंचाई पर स्थित इस मंदिर से मिले एक शिलालेख से पता चलता है कि 635 ई. में यह निश्चित रूप से विद्यमान था। हाल के शोधों के आधार पर तो अब इसे देश का प्राचीनतम मंदिर माना जाने लगा है। स्थानीय लोग 600 फीट ऊंची पहाड़ी स्थल पर स्थित प्राचीन मुंडेश्वरी मंदिर के अस्तित्व के बारे में काफी जानकारी रखते हैं।

भारतीय पुलिस सेवा के पूर्व अधिकारी तथा बिहार धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष आचार्य किशोर कुणाल और अन्य जानकार लोगों का कहना है कि मंदिर के आसपास मलबों की सफाई के दौरान दो टुकड़ों में खंडित 18 पंक्तियों का एक शिलालेख मिला था। एक टुकड़ा 1892 ईस्वी में मिला था, जबकि दूसरा 1902 में। उन दोनों खंडों को आपस में जब जोडा गया तो उसकी लिखावट से पता चला कि उसकी लिपि ब्राह्मी थी। उनके मुताबिक शिलालेख की भाषा गुप्तकाल से पूर्व की प्रतीत होती है, क्योंकि विख्यात वैयाकरण पाणिनी के प्रभाव से गुप्तकाल में परिनिष्ठित संस्कृत का उपयोग होने लगा था। इससे स्पष्ट होता है कि मुंडेश्वरी मंदिर का निर्माण गुप्तकाल से पूर्व हुआ होगा। जानकार लोग बताते हैं कि शिलालेख में उदयसेन का जिक्र है जो शक संवत 30 में कुषाण शासकों के अधीन क्षत्रप रहा होगा। उनके मुताबिक ईसाई कैलेंडर से मिलान करने पर यह अवधि 108 ईस्वी सन् होती है। शिलालेख में वर्णित तथ्यों के आधार पर कुछ लोगों द्वारा अनुमान लगाया जाता है कि यह आरंभ में वैष्णव मंदिर रहा होगा जो बाद में शैव मंदिर हो गया तथा उत्तर मध्ययुग में शाक्त विचारधारा के प्रभाव से शक्तिपीठ के रूप में परिणित हो गया। शिलालेख के दोनों टुकड़े भारतीय संग्रहालय, कोलकाता में मौजूद है।

मंदिर की प्राचीनता का आभास यहां मिले ‘महाराजा दुत्तगामनी’ की मुद्रा (seal) से भी होता है, जो बौद्ध साहित्य के अनुसार ‘अनुराधापुर वंश’ का था और ईसा पूर्व 101-77 में श्रीलंका का शासक रहा था। अष्टकोणीय योजना में पूरी तरह से प्रस्तर-खंडों से निर्मित इस मंदिर की दीवारों पर सुंदर ताखे, अर्धस्तंभ और घट-पल्लव के अलंकरण बने हैं। दरवाजे के चौखटों पर द्वारपाल और गंगा-यमुना आदि की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मंदिर के भीतर चतुर्मुख शिवलिंग और मुंडेश्वरी भवानी की प्रतिमा है। मंदिर का शिखर नष्ट हो चुका है और इसकी छत नयी है। मंदिर में जाने के बाद ही यहाँ की भव्यता के बारे में अनुभव किया जा सकता। सबसे विशेष रूप से यहां स्थापित चतुर्मुखी शिवलिंग के रंग को सुबह, दोपहर और शाम में परिवर्तित होते हुए आज भी देखा जा सकता है।

 

मुंडेश्वरी मंदिर की बलि प्रथा का अद्भुत स्वरूप इसकी खासियत है। इस शक्तिपीठ में परंपरागत तरीके से बकरे की बलि नहीं होती है। केवल बकरे को मुंडेश्वरी देवी के सामने लाया जाता है और उस पर पुजारी द्वारा अभिमंत्रित चावल का दाना जैसे ही छिड़का जाता है वह अपने आप अचेत हो जाता है। बस यही बलि की पूरी प्रक्रिया है। इसके बाद बकरे को छोड़ दिया जाता है और वह चेतना में आ जाता है। यहां बकरे को काटा नहीं जाता है।

 

यह मंदिर प्राचीन स्मारक तथा पुरातात्विक स्थल एवं अवशेष अधिनियम, 1958 के अधीन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा राष्ट्रीय महत्व का घोषित है। यहां पहुंचने के लिए पहले ग्रैंडकॉर्ड रेललाइन अथवा ग्रैंडट्रंक रोड (एनएच-2) से कैमूर जिला के मोहनियां (भभुआ रोड) अथवा कुदरा स्टेशन तक पहुंचें। वहां से मुंडेश्वरी धाम तक सड़क जाती है जो वाहन से महज आधा-पौन घंटे का रास्ता है। मंदिर के अंदर पहुंचने के लिए पहाड़ को काटकर शेडयुक्त सीढियां और रेलिंगयुक्त सड़क बनायी गयी हैं। जो लोग सीढियां नहीं चढ़ना चाहते, वे सड़क मार्ग से कार, जीप या बाइक से पहाड़ के ऊपर मंदिर में पहुंच सकते हैं। मुंडेश्वरी धाम में श्रद्धालुओं का सालों भर आना लगा रहता है, लेकिन नवरात्र के मौके पर वहां विशेष भीड़ रहती है। मंदिर की लोकप्रियता हर दिन बढ़ रही है। यह हर उत्सुक पर्यटकों के लिए यात्रा के लायक है।

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