जिस तरह फांसी की सजा विरले ही किसी को मिलती है, उसी तरह फांसी के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला फंदा भी पूरे देश में केवल एक ही जगह बनता है. वो है बक्सर का सेंट्रल जेल. देश में अब तक दी गई सभी फांसियों में इस्तेमाल किए गए फांसी के फंदे बक्सर के सेंट्रल जेल में बनाए गए. हाल ही में खबर आई कि बक्सर जेल प्रशासन को एक बार फिर से 10 फांसी के फंदे बनाने के ऑर्डर मिले थें, जो फांसी के फंदे तैयार कर तिहाड़ जेल भेजी गईं. लेकिन सवाल ये कि आखिर देश में फांसी के फंदे सिर्फ बक्सर सेंट्रल जेल में ही क्यों बनते हैं? क्या कहीं और ऐसे फंदे नहीं बनाए जा सकते?
बक्सर जेल के सुपरिटेंडेंट विजय कुमार अरोड़ा बताते हैं, “क्योंकि इंडियन फैक्ट्री लॉ के हिसाब से बक्सर सेंट्रल जेल को छोड़ बाकी सभी दूसरी जगहों पर फांसी के फंदे बनाने पर प्रतिबंध है. पूरे भारत में इसके लिए केवल एक ही जगह पर मशीन लगाई गई है और वो सेंट्रल जेल बक्सर में. और ये आज से नहीं बल्कि अंग्रेजों के समय से है.”
लेकिन अंग्रेजों ने ये मशीन यहीं पर ही क्यों लगायी? बाद में भारत के अन्य जगहों पर भी तो लगाया जा सकता था? जेल सुपरिटेंजेंट अरोड़ा कहते हैं, “ये तो वही बता सकते हैं कि उन्होंने यहीं क्यों लगायी. मेरी जो समझ है और जो मैंने यहां आकर जाना है उसके आधार पर इतना जरूर कहूंगा कि यहां के क्लाइमेट का इसमें अहम रोल है. बक्सर सेंट्रल जेल गंगा के किनारे है. फांसी का फंदा बनाने वाली रस्सी बहुत मुलायम होती है. उसमें प्रयोग किए जाने वाले सूत को अधिक नमी की ज़रूरत होती है. हो सकता है कि गंगा के किनारे होने के कारण ही मशीन यहीं लगायी गयी. हालांकि अब सूत को मुलायम और नम करने की जरूरत नहीं पड़ती. सप्लायर्स रेडिमेड सूत ही सप्लाई करते हैं.”
बक्सर जेल से मिली जानकारी के अनुसार आखिरी बार फांसी का फंदा 2016 में पटियाला जेल को सप्लाई किया गया था. उसके पहले 2015 में 30 जुलाई को 1993 में हुए मुंबई बम धमाकों के दोषी याकुब मेमन के लिए फांसी का फंदा यहीं से बनकर गया था. फांसी के फंदे बनाने के लिए बक्सर जेल में कर्मचारियों के पद सृजित हैं. वर्तमान में चार कर्मी इन पदों पर काम कर रहे हैं. जेलर सतीश कुमार सिंह बताते हैं कि कर्मी केवल निर्देशित करते हैं या प्रशिक्षित करते हैं. फांसी के फंदे बनाने का काम यहां के कैदी ही करते हैं.
सतीश कुमार सिंह कहते हैं, “यह काम यहां के कैदियों की परंपरा में शामिल हो गया है. जो पुराने कैदी हैं वो इस विधा को पहले से जानते हैं. और जो नए हैं वो देख-देख कर सीखते हैं. इसी तरह ये परंपरा चली आ रही है.”
जेल सुपरिटेंडेंट विजय कुमार अरोड़ा के अनुसार फांसी का फंदा बनाने के लिए जिस सूत का इस्तेमाल होता है, उसका नाम J34 है. पहले यह सूत विशेष तौर पर पंजाब से मंगाया जाता था, लेकिन अब सप्लायर्स ही सप्लाई कर देते हैं. वे बताते हैं, “यह मुख्य रूप से हाथ का काम है. मशीन से केवल धागों को लपेटने का काम होता है. 154 सूत का एक लट बनाया जाता है. छह लट बनते हैं. इन लटों से 7200 धागे या रेशे निकलते हैं. इन सभी धागों को मिलाकर 16 फीट लंबी रस्सी बनती है.”
जेलर सतीश कुमार सिंह के मुताबिक फंदा बनाने का अंतिम चरण सबसे महत्वपूर्ण होता है. वो कहते हैं, “जब एक बार हम यहां से रस्सी बनाकर भेज देते हैं, तो जहां जाता वहां उसके फिनिशिंग का काम होता है. फिनिशिंग के काम में रस्सी को मुलायम और नरम बनाना शामिल है. क्योंकि नियमों के मुताबिक फांसी के फंदे से केवल मौत होनी चाहिए. चोट का एक भी निशान नहीं रहना चाहिए.
फांसी के फंदों का इतिहास बड़ा रोचक है. कई रिपोर्ट्स में ऐसा पढ़ने को मिलता है कि पहले के समय में फांसी के फंदे जिस रस्सी से बनाए जाते हैं वो फिलिपिंस की राजधानी मनीला से आती थी. इसलिए इसका एक नाम मनीला रस्सी भी पड़ा.
जेलर सतीश कुमार सिंह कहते हैं, “1880 में बक्सर सेंट्रल जेल की स्थापना हुई थी. शायद उसी समय अंग्रेजों ने यहा फांसी का फंदा बनाने वाली मशीन लगायी थी. लेकिन ये हमारे रिकार्ड में नहीं है कि मशीन वास्तव में कब लगी थी. शायद पुराने अभिलेखों को देखा जाए तो कुछ अंदाजा लगाया जा सकता है. बक्सर के वरिष्ठ स्थानीय पत्रकार बब्लू उपाध्याय कहते हैं, “एक वक़्त में बक्सर में देश की सबसे बड़ी सैनिक छावनी हुआ करती थी. भारत के सबसे बड़े जेलों में से एक था बक्सर जेल. जाहिर है सबसे अधिक कैदी भी यहीं हुआ करते होंगे. अंग्रेजो ने पुराने समय से ही यहां पर बड़ा इंडस्ट्रियल शेड बनाया. यहां केवल रस्सी बनाने का ही काम नहीं होता है बल्कि यहां के कैदी और भी तमाम चीजें मसलन फिनायल, साबुन आदि भी बनाते हैं.”
वे कहते हैं, “जेल से गंगा नदी तो सटी है, साथ ही बक्सर जेल उस वक्त और आज भी देश के गिने-चुने जेलों में से है जहां कुंआ है. कुंआ और नदी का होना बताता है कि यहां पानी का सबसे बेहतर प्रबंध था. ये भी वजह हो सकती है कि रस्सियों को भिगोने और नम करने के लिए बक्सर सेंट्रल जेल में ही फांसी के फंदे बनाए गए.”
एक कैदी के लिए फांसी का फंदा बनाना, अपनी सजा को कम कराना भी है. जेल मैनुअल के अनुसार वैसे कैदी जो जेल में रहते हुए श्रम करते हैं, अच्छा आचरण रखते हैं, उनकी सजा कम की जाती है. सुपरिटेंडेट विजय कुमार अरोड़ा कहते हैं, “इसका अलग हिसाब किताब है. अगर कोई बंदी महीने भर अच्छा काम करता है तो उसकी सजा में से दो दिन कम होगा. अगर वह रविवार को ओवरटाइम में भी काम करता है तो सजा में एक दिन और कम होगा. बाकी छूटें उसके आचरण, जेल रिकॉर्ड और अधिकारियों के विवेक के आधार पर होता है. कुल मिलाकर देखें तो कोई बंदी अगर अच्छा आचरण करे और अच्छे से काम करे तो साल भर में कम से कम 105 दिन की सजा कम करा सकता है.”
बक्सर सेंट्रल जेल में फांसी की सजा पाए फिलहाल दो कैदी बंद हैं. क्या फांसी की सजा पाए अपराधी भी फांसी का फंदा बनाते हैं? जेलर सतीश कुमार कहते हैं, “नहीं. फांसी की सजा पाए कैदी विशेष कैदी होते हैं. उनसे कोई काम नहीं कराया जाता. जिन लोगों को फांसी की सजा आजीवन कारावास में बदल चुकी हैं या जो आजीवन कारावास की सजा भुगत रहे हैं, वे ही फांसी के फंदे बनाने के काम में लगते हैं.”
जेल सुपरिटेंडेंट के अनुसार, “पिछली बार जो फंदे बनाकर पटियाला जेल भेजे गए थे, उसकी कीमत 1725 रुपए लगायी गयी थी. पर इस बार महंगाई बढ़ गई है. धागे और सूत के दाम तो बढ़े ही हैं, साथ में जो पीतल का बुश गर्दन में फंसाने के लिए लगाया जाता है, उसका भी दाम बढ़ गया है. इस बार हमने कीमत 2120 रुपए रखी है.”
Source- BBC