रोहतास जिले के नासरीगंज से लगभग 7 किलोमीटर उत्तर-पूरब में स्थित देवमार्कण्डेय, अतिप्राचीन काल से ही विकसित संस्कृति एवं कला का केंद्र रहा है. गाँव एक ऊँचे टीले पर बसा है. गाँव के पश्चिम तथा दक्षिण में टीले हैं, जिन्हें गढ़ कहा जाता है. वर्तमान में गाँव के दक्षिण-पश्चिम में एक टीले पर शिवमंदिर है. इसमें प्राचीन शिवलिंग स्थापित है.
इस टीले से लगभग 100 मीटर पूरब में दूसरा टीला है जो पूरब से पश्चिम 200 फीट लंबा तथा उत्तर से दक्षिण 120 फीट चौड़ा है. इसके ऊपर उत्तर तथा पश्चिम में नए मंदिर बनाए गए हैं. उत्तरी-पश्चिमी कोने के मंदिर में चतुर्मुख शिवलिंग स्थापित है. इससे दक्षिण में पूर्वाभिमुख सूर्यमंदिर है. इस मंदिर में सूर्य की बड़ी प्रतिमा स्थापित है. यहाँ एक और सूर्य देव की छोटी प्रतिमा रखी गई है.
सूर्यदेव के दायें में त्रिमूर्ति है. सूर्य के बायीं ओर उमा-माहेश्वर स्थापित हैं. उत्तरी दीवाल में दुर्गा तथा चामुंडा की प्रतिमाएँ हैं. दक्षिणी दीवाल में दो गणेश प्रतिमाएँ स्थापित हैं. इस मंदिर से दक्षिण में एक और शिवमंदिर है जिसमें शिवलिंग और नंदी स्थापित हैं. टीले के दक्षिणी भाग में उत्तराभिमुख विष्णु मंदिर है, जिसमें 5 विष्णु तथा दो सूर्य की प्रतिमाएँ स्थापित हैं. मंदिर के बाहर गणेश की दो प्रतिमाएँ दीवाल में लगी हैं. इस मंदिर से पूरब में एक और नया मंदिर है जिसमें पार्वती तथा सरस्वती की प्रतिमाएँ स्थापित हैं. टीले के दक्षिणी-पश्चिमी भाग में एक मुखी शिवलिंग स्थापित है. इस प्रकार यहाँ पंचायतन मंदिरों का रूप था.
इस टीले से उत्तर-पूरब की ओर एक छोटा तालाब है, जिसे सूरज पोखरा कहते हैं. इस गाँव से उत्तर पड़सर में एक देवी की प्रतिमा स्थापित है. यहाँ यत्र-तत्र उत्तरी काली चमकीली मृद्भांड परंपरा के अवशेष प्राप्त होते हैं, जो 600 से 200 ई0 पूर्व के हैं. इसके अतिरिक्त यहाँ से काले, लाल और काले-लाल मृद्भांडों के भी अवशेष मिलते हैं.
यहाँ बुकानन को एक शिलालेख मिला था, जो चेरो राजा फुदी चंद्र या फूल चंद्र का था, किंतु यह न तो कनिंघम को मिला और न ही गैरिक को. यह लेख आज भी श्रुतिलेख के रूप में लोगों को याद है, जो इस प्रकार है:- ‘‘श्री मद्विक्रमवत्सरे निगीदते शून्ये युगे चंद्रिके, अर्धांगिनी फूल चंद्र नामना च गोभावनी। जैष्ठै वै श्रावणो शशांकदिवसे शुक्लातिथिपंचमी,साध्वीधर्मरताचकार जीर्णोद्धार च देवालया।’’इसके अनुसार विक्रम संवत् 120 या 63 ई. में राजा फूल चंद्र की पत्नी गोभावनी द्वारा मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया था.
इतिहासकार डॉ. श्याम सुंदर तिवारी ने बताया कि, यहाँ की प्रतिमाएँ गुप्तकाल से लेकर परवर्ती गुप्तकाल तक की हैं. पहले यह स्थान शैव केंद्र था, बाद में यह विष्णु और सूर्य देव का हो गया. सूर्य केन्द्र होने कारण यहाँ शाकलद्वीपी ब्राह्मणों का आधिक्य है. इसके बाद यह स्थान विष्णु, गणेश और देवी को समर्पित होता हुआ पंचायतन मंदिर का रूप धारण कर लियाा. यहाँ छठ के अवसर पर भारी मेला लगता है.
उन्होंने बताया कि देव मार्कंडेय में देखते-देखते काफी बदलाव हो चुका है. दोनों टीलों के बीच आज विद्यालय भवन बन चुका है. जहाँ प्रतिमाएँ खुले आकाश के तले थीं वहाँ आज मंदिर बन चुके हैं. एक परिवर्तन इस बार और देखा कि प्रतिमाओें को सुनहले रासायनिक रंग से रंगा गया है. इससे सूर्य की प्रतिमा के चेहरे वाले भाग पर दरारें स्पष्ट दिख रहीं थी. एक स्थान पर पत्थर टूट कर निकल चुका था. कहें तो यह अनमोल प्रतिमा खंडित होने के कगार पर है.
आलेख- काशी प्रसाद जयसवाल शोध संस्थानसे जुड़े जिले के इतिहासकार डॉ श्याम सुंदर तिवारी