भारत में ब्रिटिश राज के दौरान यातायात संचार और व्यापार के साधन के तौर पर सड़कों के विकास के साथ साथ रेलमार्ग के जाल बिछाने पर पर्याप्त ध्यान दिया गया. इसी सिलसिले में बिहार के शाहाबाद जिले में दो लाइट रेलवे नेटवर्क की स्थापना बीसवीं सदी के शुरूआत में की गई. इनमें पहली आरा-सासाराम लाइट रेलवे थी तो दूसरी डेहरी-रोहतास लाइट रेलवे. कई दशक तक बिहार के पुराने शाहाबाद जिला जो अब भोजपुर और रोहतास जिला कहलाता है के लोगों के आंखों का तारा बनी रही आरा-सासाराम लाइट रेलवे अब इतिहास के पन्नों में समा चुकी है.
1914 में शुरू हुई इस छुकछुक गाड़ी ने 1978 में पटरियों पर अपना आखिरी सफर पूरा किया. लेकिन जिन लोगों का बचपन और युवावस्था के दिन इस रेल की छुक-छुक के साथ गुजरा है उनके जेहन में उसकी कई स्मृतियां ताजी हैं. किसी समय में ये रेल भोजपुरी समाज के लोकरंग का अंग बन गई थी. कई गांवों में तोइस महबूब रेल पर गीत भी रचे गए थे.
आरा सासाराम लाइट रेलवे का सफर वीर कुअंर सिंह के आरा से शुरू होकर शेरशाह की नगरी सासाराम में खत्म होता था. तब आरा शाहाबाद जिले का मुख्यालय और सासाराम इस जिले का एक सब डिविजन हुआ करता था. दोनों शहरों के बीच की दूरी 100 किलोमीटर है. हालांकि इस मार्ग पर लंबे संघर्ष के बाद 2008 बड़ी लाइन बिछाई गई और इस मार्ग ट्रेनें फिर चलने लगी. पर 1978 के बाद तीन दशक तक ये मार्ग रेल विहीन रहा. हालांकि इस मार्ग पर चलने वाली पैसेंजर ट्रेनों की गति ज्यादा नहीं थी पर यह रेलमार्ग आसपास के कई सौ गांवों के लोगों के लिए यातायात का प्रमुख साधन था. इस रेल की अधिकतम स्पीड इतनी ही थी कि कोई साइकिल वाला साथ चलती सड़क से इसके साथ मुकाबला कर लेता था. आरा-सासाराम लाइट रेलवे पर चलने वाली पैसेंजर ट्रेनों की गति औसतन 20 से 30 किलोमीटर प्रति घंटे के बीच होती थी.
आरा-सासाराम लाइट रेलवे मार्ग पर लोकोमोटिव यानी इंजन के तौर पर भाप इंजन का इस्तेमाल किया जाता था. इस रेल मार्ग पर हंसले ( HUNSLET) और के बनाए लोको इस्तेमाल में लाए जा रहे थे. छोटी रेलगाड़ियों में रूचि रखने वाले लंदन के एक लेखक लारेंस जी मार्शल ने भारत के अलग-अलग हिस्सों की लंबी यात्रा कर स्टीम इंजनों पर अध्ययन किया. इस दौरान वे आरा-सासाराम लाइट रेलवे को भी देखने आए. इस समय इस लाइट रेलवे में हंसले द्वारा निर्मित 2-4-2 टैंक नंबर 5 इंजन इस्तेमाल किया जा रहा था. यह इंजन हंसले कंपनी ने 1910 में बनाया था.
हंसले ब्रिटेन की कंपनी है जो दुनिया के कई देशों में नैरो गेज लाइनों के लिए खास तौर पर स्टीम लोकोमोटिव (इंजन) का निर्माण करती थी. 1970 में आरा-सासाराम लाइट रेलवे के पास कुल सात लोकोमोटिव (इंजन) थे जिनकी मदद से आरा-सासाराम के बीच पैसेंजर ट्रेनों का संचालन हो रहा था. एक पैसेंजर ट्रेन में अमूमन चार से आठ डिब्बे होते थे.
बंदी का कारण: 1974 के बाद आरा-सासाराम लाइट रेलवे के प्रबंधन ने घोषणा कर दिया था साल दर साल घाटा होने के कारण कंपनी में तालाबंदी के हालात बन आए हैं. साल 1950 से 1970 के दशक में आरा-सासाराम लाइट रेलवे को अच्छी संख्या में पैसेंजर मिल रहे थे पर 1975 के आसपास लगातार यात्रियों की संख्या में कमी आने लगी. रेलमार्ग के समांतर चल रहे सड़क पर चलने वाली बसों की स्पीड रेल से ज्यादा थी. लिहाजा यात्रियों के लिए रेल का सफर ज्यादा समय लेने वाला होने लगा. यात्रियों की कमी के कारण मार्टिन कंपनी को आरा-सासाराम लाइट रेलवे से घाटा होने लगा. वहीं रेलमार्ग का रोलिंग स्टॉक, पटरियां और अन्य परिसंपत्तियों पुरानी पड़ने लगी थीं. इनका उचित रखरखाव नहीं हो पा रहा था. उनके रखरखाव के लिए बड़े खर्च की आवश्यकता थी, जो खर्च कंपनी करने को तैयार नहीं थी.
18 दिसंबर 1974 को कंपनी ने पहली बार इस रेल मार्ग को बंद करने के लिए एक नोटिस जारी किया. लेकिन भारत सरकार, रेलवे बोर्ड की ओर से इस लाइट रेलवे कपंनी आर्थिक सहायता दी गई. ढाई लाख रुपये के एडवांस दिए जाने के बाद कंपनी ने अगले तीन साल तक और इस रेल मार्ग का संचालन किया. तीन साल का सहायता काल पूरा हो जाने के बाद 29 अक्तूबर 1977 को केंद्र सरकार ने कंपनी को रेल परिचालन बंद करने का निर्देश दिया. भारत में ज्यादातर निजी क्षेत्र की रेल परियोजनाएं बंद हो चुकी थीं या फिर उनका राष्ट्रीयकरण होने के बाद में वे भारतीय रेल का हिस्सा बन चुकी थीं. इस दौर में मार्टिन एंड कंपनी ने 1977 में कलकत्ता हाईकोर्ट से रेलमार्ग को बंद करने के लिए औपचारिक तौर पर आदेश प्राप्त किया. 6 दिसंबर 1977 को कंपनी ने रेलवे बोर्ड को पत्र लिखकर सूचना दी की वह इस रेल मार्ग पर संचालन बंद करने जा रही है. आरा-सासाराम लाइट रेलवे मार्ग पर 15 फरवरी 1978 को आखिरी पैसेंजर ट्रेन ने सफर किया. इसके बाद आरा सासाराम लाइन पर नैरो गेज ट्रेनों का सफर इतिहास बन गया.