प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 का रणघोष हो चुका था. इसकी चिंगारी शोला बन चुकी थी और देश भर में अंग्रेजों के खिलाफ जंग आजादी का एलान हो चुका था. दिल्ली में बहादुर शाह जफर, कानपुर में नाना साहब, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, काल्पी के राय साहब जैसे लोग स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में कूद चुके थे. तो बिहार भी आजादी के इस शोले की धधक से अछूता नहीं रहा. शाहाबाद जिले के जगदीशपुर के अस्सी वर्षीय बाबू वीर कुंवर सिंह 1857 की इस लड़ाई में बिहार का नेतृत्व कर रहे थे. भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हीरो रहे जगदीशपुर के बाबू वीर कुंवर सिंह को एक बेजोड़ व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है जो 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय हासिल करने का माद्दा रखते थे. अपने ढलते उम्र और बिगड़ते सेहत के बावजूद भी उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने घुटने नहीं टेके बल्कि उनका डटकर सामना किया.
बिहार के शाहाबाद जिले के जगदीशपुर गांव में 1778 में जमींदार घराने में जन्मे बाबू कुंवर सिंह अंग्रेजी राज के विरूद्ध 1857 की क्रांति में शामिल हो कर अंग्रेजो के खिलाफ खुली बगावत की थी. दानापुर छावनी के बागी सिपाही जगदीशपुर के जमींदार बाबू कुंवर सिह से जा मिले. बाबू कुंवर सिंह ने जगदीशपुर के जंगलो में आजादी की पहली गुरिल्ला लड़ाई की शुरुआत किये. तब उनकी उम्र अस्सी साल थी. आरा बीबीगंज दुलौर में विद्रोहियों ने जमकर लोहा लिया बाद में बर्बर अंग्रेजी सेना ने जगदीशपुर को पूरी तरह घ्वस्त कर दिया. 12 अगस्त को अंग्रेजों ने कुंवर सिंह के महल व अन्य भवनो के साथ एक भव्य मंदिर को भी ढाह दिया. क्योंकि अंग्रेजों को विश्वास था कि वहां के ब्राह्मणों ने बाबू कुंवर सिंह को विद्रोह के लिए उकसाया. गांव के गांव जलायें गये. कुंवर सिह पर पच्चीस हजार रूपये के इनाम की घोशणा कर दी गई और उनकी पूरी संम्पति जब्त कर ली गई. पिता साहेब सिह की मृत्यु के बाद बाबू कुंवर सिंह गद्दी पर बैठे.
डुमरांव राज के बाद बाबू कुंवर सिह की सबसे बड़ी जमींदारी थी. जिसमें पीरो, ननौर, बिहिया भोजपुर, सासाराम सहित कुल 1787 मैजे रहे. उनकी उदारता एवं अंग्रेजो के साथ युद्ध के कारण माली हालत खराब थी. लेकिन जनहित कार्योे के लिये धन देने में कोई कंजुसी नही की. जगदीशपुर, आरा में मस्जिदे बनवाई, स्कूल खोले, तालाब खुदवायें. पटना इंडस्ट्रियल स्कूल के लिये 1100रूपये का दान दिया .पीरो नूर शाह को नमाज के लिए मस्जिद के रख-रखाव के लिए पांच कठा लगान मुक्त जीमन दान की. इसके अलावा उन्होंने कई प्रशासनिक सुधार भी किये. जगदीशपुर में लगातार जारी हमलों के बाद बाबू कुंवर सिंह ने सासाराम की ओर कूच किए. इनकी नजर तब जगदीशपुर के बजाए दिल्ली पर थी. उन्होने मिर्ज़ापुर, रीवां बांदा, कानपूर होते हुए लखनऊ तक मार्च किया. अंग्रेज अधिकारियों ने इसे समझने में कोई भूल नहीं की. गवर्नर जनरल ने स्थनीयें अधिकारियों को यह सूचना दी कि बाबू कुंवर सिंह ने नाना साहब को अपनी सेवा देने की पेशकश की है. अगर वे इसे स्वीकार नही करेंगे तो वे दिल्ली की ओर कूच करेगें.
बाबू कुंवर सिंह ने जगदीशपुर छोड़ कर गढ़नोखा पहुंचे. स्थानीय लोग भी उनके साथ हो गए. नोखा गढ़ की सेना को लेकर आगे बढे़ 14 अगस्त 1857 केा डिप्टी मजिस्ट्रेट ने सूचना दी की बाबू कुंवर सिंह इस इलाके से गुजर रहे हैं पर अंग्रेजी फौज कुंवर सिंह को रोकने में असफल रही. 20 अगस्त तक रोहतास में रूके रहे. पटना के कमिश्नर ने 150 सैनिको को रोहतास भेजा बाबू कुंवर सिंह के साथ तब एक हजार सैनिक थे. बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ बटालियन विद्रोहियों के पहुंचने का इंतजार कर रहे थे .लगभग पूरे अगस्त तक बागियों का डेरा रोहतास में डटा रहा .बागी सेनो विजयगढ़ में इकठठी हुई. यहाँ बागी सैनिकों की संख्या अठारह हजार तक पहुँच गई. बाबू कुंवर सिंह आगे बढ़ कर घोरवाल, रूसेढा, नेवारसे होते हुए मिर्जापुर के फुलिया तथा टोटवा में डेरा डाला. हरिया घाट मैसेन्ध से वे आगे बढ़े. यह लगभग 25 दिनो का मार्च था वे अंग्रेजो को छकाते हुए आगे बढते रहे. राबट्संगंज के थानेदार ने लिखा है कि बाबू कुंवर सिह ने हुक्म दे रखा था कि कोई अंग्रेज अफसर इलाके में न रहने पाये 14 अगस्त 1857 को विद्रोहियों ने रार्बट्सगंज कचहरी केा लूट लिया और थाने को ध्वस्त कर दिया. यह दल सिगंरौली भी गया दो सितम्बर को अंग्रेजी अफसर को बताया गया कि, कुंवर सिह रीवां की तरफ कूच रहे है. रीवां के राजा रघुराज सिंह इनके रिश्तेदार थे पर अंग्रेजो के भक्त थे. जब वे रीवा से आठ मील दूर रह गये थे ने रघुराज सिंह ने पत्र लिखा कि वे राज्य में प्रवेश न करें. रीवां में हस्मत अली और हरचंद राय ने कुंवर सिंह की मदद की. डरकर राजा महल छोड़कर भाग गया. जनता के साथ मिलकर विद्रोहियों ने लेफ्टिनेट आसवर्न को उसके आवास में नजरबंद कर दिया. जबलपुर सेना के फौजी इंजीनियर ने नौ सितम्बर को सूचित किया कि कुंवर सिंह दो नदियों को पार कर 30 मील का सफर तय किया. विद्रोहियों की संख्या 18 हजार से ज्याद हो गई. रीवां के बाद कुंवर सिह बांदा के लियें चल पड़े.
उनका इरादा तात्या टोपे से मिलना था. 29 सितम्बर को वे बांदा पहुंचे. 25 अक्टूबर को कलामी के लिए रवाना हुए और एक माह तक रूक कर ग्वालियर के विद्रोहियों के आने का इंतजार किया. सात नवम्बर को ग्वालियर की सेना पहुंची. यही से नाना साहब और कुंवर सिंह मिलक्र कानपुर में अंग्रेजों के साथ युद्ध किया. कानपुर से विद्रोहियों ने लखनऊ की ओर कूच किया. कुंवर सिंह के साथ इस मार्च में शामिल बागी रंजीत राम और निशान सिंह के पकड़े जाने के बाद फौजी अदालत में दिये गये बयान में कहा कि कानपुर की हार के बाद वे लोग लखनउ में डेढ़ महीने तक रहे और एक काॅलेज में डेढ़ माह तक कब्जा रखा. अवध के नवाब ने बाबू को कीमती खिलअत भेजी. उसमें कई हाथी, रोबदार पोषाक और दस हजार नकद रूपये रहे. लखनऊ से फैजाबाद 12 फरवरी को अयोघ्या में फैजाबाद से आजमगढ की 22 मार्च को अंग्रेजो ने उन पर हमला कर दिया उनकी हार हुई 26 मार्च को आजमगढ़पर विद्रोहियों ने कब्जा कर लिया. कुंवर सिंह ने निशान सिंह को एक टुकड़ी के साथ वही छोड़ गाजीपुर की ओर बढे़. अंग्रेजी फौज ने उनका पीछा किया. गोरखपुर, गाजीपुर, बलिया, छपरा हर तरफ घेराबंदी थी. कैप्टन ले ग्रैड़ फौज के साथ आरा से रवाना हुया. लेकिन उसे मुंह की खानी पड़ी. 22 अप्रैल को कुंवर सिंह जगदीशपुर पहुंच गये. जहाँ विजयोत्सव मनाया गया. बाबू वीर कुंवर सिंह गंम्भीर रूप से घायल हो गये जहाँ तीन दिन बाद दम तोड दिए. शाहाबाद को अभिमान है अपने इस सपूत पर जिसने 80 साल के उम्र में भी तलवार उठा, जवानों में जोश भरकर आजादी का बिगूल फूक दिया और मरते दम तक देश के आजादी के लिए लड़ते रहे.
रिपोर्ट- अरविंद कुमार सिंह, नोखा