यूं तो जिउतिया या जीवित्पुत्रिका व्रत पूरे हिंदीभाषी क्षेत्र में मनाया जाता है, किंतु औरंगाबाद जिले के दाउदनगर में इसका अलग स्वरूप और अंदाज है. यहां इसे नकल-पर्व के रूप में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. जो नौ दिवसीय लोकोत्सव है. इसमें लोक जीवन का दुख-दर्द, हर्ष, उल्लास का अनुभव तथा जीवन पर वैचारिक प्रतिक्रियाएं मिलती हैं. पर्व-त्योहारों का, देवी-देवताओं का तथा प्रकृति के विविध रूपों का चित्रण मिलता है. इसमें विश्वास, प्रथा, अंधविश्वास, कर्मकांड, लोकोत्सव और परिपाटी शामिल है. यहां का समाज इससे गहरे जुड़ाव रखता है. जिसे देखने के लिए झारखंड, उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर समेत विभिन्न राज्यों तक से लोग सपरिवार आते हैं. यही कारण है कि औरंगाबाद जिले का यह अनुमंडलीय शहर दाउदनगर अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान रखता है.
जिउतिया-पर्व (जीवितपुत्रिका व्रत) आश्विन महीने के (सितंबर-अक्तूबर) में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है. इसका विशेष वर्णन ‘भविष्य पुराण’ में मिलता है. यह पर्व तीन दिनों का होता है – एक दिन नहाय-खाय यानी सप्तमी को माताएं स्नान करके खाना खाती हैं, अष्टमी को उपवास रखकर शाम में पूजा करती हैं और नवमी को सुबह में उपवास तोड़ कर ‘पारण’ कर लेती हैं. दाउदनगर की खासयित यह है कि यहां इस पर्व का आरम्भ ‘अनंत पूजा’ के दूसरे दिन यानी आठ-नौ दिन पहले से ही हो जाता है. जिउतिया में भगवान जीमूतवाहन की पूजा की जाती है. पूजा करने के लिए दाउदनगर में चार चौक बने हुए हैं. पुराना शहर चौक, कसेरा टोली चौक, पटवा टोली चौक और बाजार चौक पर जिमूतवाहन भगवान स्थापित हैं. अनंत पूजा के दूसरे दिन शाम में डमरू के आकार का लकड़ी या पीतल धातु का बना बड़ा-सा ओखल चारों चौकों पर रख कर (हालांकि अलग-अलग दिन भी एक-दो चौकों पर रखी जाती है) जिउतिया पर्व का विधिवत आरंभ कर दिया जाता है.
इस दिन से प्रतिदिन शाम को अंधेरा होते ही चौक के पास पुरुष और बच्चे जमा होते हैं और ढोलक की थाप पर तालियां बजा-बजा कर झूमर गाते हैं. इसे ‘चकड़दम्मा’ कहा जाता है. चौक की परिक्रमा करते हुए नाचते-झुमते हुए झूमर गाने का आनंद ही कुछ और होता है. पूरा वातावरण संगीतमय हो जाता है. झूमर गीतों में विविधता व मधुरता होती है. इन चौकों पर जिउतिया पर्व के दिन महिलाएं पहुंच कर भगवान जिमूतवाहन की पूजा-अर्चना करती हैं और अपने संतान के दीर्घायु होने की कामना करती हैं.
दाउदनगर में जिउतिया पर्व मनाने की परंपरा सदियों पुरानी है. कहा जाता है कि बहुत पहले यहां यह पर्व एक महीने तक मनाया जाता था. इसके इतिहास में जाने पर पता चलता है कि अंग्रेजों के शासन-काल में दाउदनगर में एक बार भयानक प्लेग फैला था. प्लेग से लोग मर रहे थे. बचाव का कोई उपाय नही था. उसी दरम्यान ओझा-गुनियों की एक मंडली इधर से गुजर रही थी. उन लोगों ने दाउदनगर की दुर्दशा देखी तो रूक गये और यहां के लोगों से कहा कि हम गुण से प्लेग को भगा देंगे. दाउदनगर के लोग तो परेशान थे ही. इनके पास कोई दूसरा उपाय नहीं था, सो यहां के लोगों ने ओझा-गुनिया को ठहराया और उनके कहे अनुसार अनुष्ठान करने लगे. गुनिया लोगों ने ’बम्मा देवी‘ की स्थापना कर तांत्रिक अनुष्ठान करने शुरू किये. वे लोग ढोल-मंजीरा बजाते हुए पचरा गाते और दिन-रात पूरे दाउदनगर के चक्कर लगाते. गुनिया लोगों ने कहा कि एक माह तक यहां के लोगों को दिन-रात बारी-बारी से जागते रहना होगा और ढोल-मंजीरा बजाते रहना होगा. इस तरह जागे रहने के लिए गुनिया लोगों ने ही कुछ खेल-तमाशे शुरू किये और साहसिक कारनामे (जीभ में त्रिशूल घूसा लेना, बाहों में चाकू घोंप लेना, सिर में, कमर में तलवार आर-पार कर लेना आदि) दिखाने लगे. वे लोग कई तरह के गीत भी गाते, जिनमें झूमर और लावनी काफी प्रसिद्ध है.
इसी रतजगा के बीच जिउतिया पर्व भी आ गया. स्वभावतः एक महीने तक जागने की और कई तरह से मनोरंजन करने की परंपरा जिउतिया पर्व के साथ जुड़ गयी. धीरे-धीरे समय बीतने के साथ एक महीने का यह आयोजन कम होकर 9-10 दिनों का रह गया. जिउतिया की प्राचीनता और परंपरा को बतलाने वाला एक झूमर-गीत यहां गाया जाता है. झूमर-गीत में दो बातें कही गयी हैं. पुराने जमाने में जिउतिया-पर्व नौ दिनों तक मनाया जाता था. इसका आरंभ संवत् 1917 (1860 ई0) में हुआ. जाहिर है प्लेगवाली घटना इनसे पहले की है. इससे दाउदनगर में जिउतिया-पर्व मनाने की प्राचीनता का पता चलता है.
लोक पर्व जीवन को उल्लासित, आनंदित और संस्कारित करते हैं. लोक पर्व में विविधता और विशिष्टता होती है. लोक-पर्व से किसी देश, किसी प्रांत, किसी क्षेत्र, किसी शहर, किसी गांव का विशेष पहचान बनती है. जिउतिया-पर्व के अवसर पर दाउदनगर शहर करीब एक सप्ताह तक हंसी-मजाक, व्यंग्य-विनोद, गीत-संगीत, नृत्य-नाच, रहस्य-रोमांच और साहसिक कारनामे करने-दिखाने में लिप्त रहता है. यहां जिउतिया यानि जीवित-पुत्रिका व्रत को बड़े ही धूम-धाम और रंगारंग रूप में मनाया जाता है. नकल बनने के लिए बच्चे, युवा, अधेड़, बुढ़े सभी उम्र के पुरुषों में होड़ लगी रहती है. नकल बनने वाले कलाकार साहसिक कारनामे (मुड़िकटवा, डाकिनी, चाकुधारी, तलवारधारी, त्रिशुलधारी, लालदेव-कालादेव आदि) दिखलाते हैं.
विशेष बात यह है कि नकल के माध्यम से समसामयिक घटनाओं और सामाजिक कुरीतियों पर करारा व्यंग्य-प्रहार किया जाता है. नकल बनकर सरकारी तंत्र की जमकर पोल खोली जाती है. विभिन्न प्रकार की झांकियां भी निकाली जाती हैं. स्थानीय लोक कलाकार नकलों की प्रस्तुती कर अपनी लोक कला का प्रदर्शन करते हैं. खासकर तीन दिनों तक तो नकलों की भरमार रहती है..
दाउदनगर के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण महान लोकपर्व जीउतिया में निकाले जाने वाले नकलों को बढ़ावा देने के भरपूर प्रयास स्थानीय कुछ संगठनों द्वारा नकल अभिनय प्रतियोगिताओं के माध्यम से किया जा रहा है. दाउदनगर की जिउतिया को राजकीय दर्जा देने की मांग भी उठने लगी है.