जाड़े की कडकडाती सुबह के चार बजे बड़ो का चिल्लाते हुए उठाना की जल्दी उठो नहीं तो पापा गंगा जी ले जायेंगे नहाने के लिए. इतना सुन हम फटाफट रजाई को बेमन त्यागते हुए सीधे खुले हुए आँगन में ब्रश आदि कर ठंढे पानी से ‘कौवा- स्नान’ (शार्ट- कट स्नान) कर अपने दांत किटकिटाते हुए, धुले हुए कपड़े के ऊपर दो-चार स्वेटर डाल लेते थे.
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घर के बड़े लोग गांव की नदी व नहर में डुबकी लगा कर आते थे. नहाने के बाद चावल, चूड़ा, तिलकुट, तिल आदि छूकर दान-पुण्य किया जाता था. इसी बीच माँ और बडकी भाभी आलूदम और दुसरे व्यंजन बनाने में भिड़ी रहती थी. फिर हम सब एक साथ बैठकर चुडा-दही, तिलकुट का मज़ा लेते थे. वैसे मुझे ये व्यंजन बहुत ज्यादा पसंद नहीं था, पर गरमागरम आलू दम और तिलकुट को एक साथ खाने का मज़ा ही कुछ और था.
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सुबह से शाम तक तरह-तरह के तिलकुट खाने के लिए मिलता था. कभी गुड़ वाला, कभी चीनी तो कभी खोआ वाला तिलकुट. बड़ा ही उत्साह वर्धक होता थ ये दिन! सब लोगो की छुट्टी और सूरज देवता का लुक्का-छिप्पी का खेल पूरे दिन चलता रहता था. गांव के नहर किनारे मेला भी लगता था. दोपहर बाद हमलोग मेला जाते थे. खूब मस्ती करते. गांव के खेत मे साग खोटते महिलाओं का दृश्य देखते ही बनता था.
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साल में दो पर्व, एक तो मकर संक्रांति और दूसरा सरस्वती पूजा मुझे एक ही जैसे लगते थे क्योंकि दोनों दिन हमें भोरे-भोर उठा दिया जाता था. वैसे बचपन में हमें झकझोर कर उठाना बुरा लगता था परन्तु आज दिल्ली जैसे महानगर में इन त्योहारों को अपने नजदीक नहीं पाता हूँ और दिल में इसकी कमी जरुर महसूस होती है.
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