राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह सूर्यपुरा के प्रसिद्ध जमींदार राजा राजराजेश्वरी सिंह ‘प्यारे’ के सुपुत्र थे। राधिकारमण प्रसाद सिंह का जन्म 10 सितम्बर 1890 ई. को हुआ था। आरंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। जब वे 12 वर्षों के थे तभी 1903 ई. में उनके पूज्य पिताजी की मृत्यु हो गयी और उनका सारा स्टेट ‘कोर्ट आँव वार्ड्स’ के अधीन हो गया। उन्होंने क्रमशः 1907 ई. में आरा जिला स्कूल से इन्ट्रेन्स, 1909-10 ई. में सेट जेवियर्स कॉलेज, कलकत्ता से एफ.ए, 1912 ई. में प्रयाग विश्वविद्यालय से बीए, और 1914 ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की परीक्षाएं पास कीं। 1917 ई. में जब वे बालिग हुए, तब रियासत ‘कोर्ट ऑव वार्ड्स’ के बंधन से मुक्त हुए और वे उसके स्वामी हो गए। सन् 1920 ई. के आसपास अंग्रेजी सरकार ने राधिकारमण प्रसाद सिंह को ‘राजा’ की उपाधि से विभूषित किया। आगे चलकर उनको सी.आई.ई. की उपाधि भी मिली। जब स्वंतत्रता संग्राम छिड़ा, तब राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह उसमें भी पीछे न रहे। गाँधीवाद में उनकी गहरी आस्था थी। उसी समय वे आरा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के प्रथम भारतीय अध्यक्ष मनोनीत हुए। सन् 1927 से 35 ई. तक मुस्तैदी और कार्य कुशलता से अनेक सामाजिक एवं प्रशासनिक सुधार किए। गांधीजी के प्रभाव में आकर उन्होंने बोर्ड की चेयरमैन छोड़ दी और देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के आग्रह पर बिहार हरिजन सेवक संघ की अध्यक्षता स्वीकार कर ली। सन् 1935 ई. में अपनी रियासत का सारा भार अपने अनुज श्री राजीव रंजन प्रसाद सिंह को सौंपकर सरस्वती की आराधना में तल्लीन हो गए। इसके पूर्व ही सन् 1920 ई. में बेतिया में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के द्वितीय वार्षिक अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनीत हुए थे। उक्त सम्मेलन के पंद्रहवें अधिवेशन (आरा, सन् 1936 ई.) के वे स्वगताध्यक्ष थे। आरा नगरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी हुए थे।
उनका संबंध देश के अनेक साहित्यिक-सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थाओं से रहा एवम उनकी गणना हिंदी के यशस्वी-कथाकारों एवं विशिष्ट शैलीकारों में होती है। कथा साहित्य के अतिरिक्त वो नाटक और संस्मरण लिखने में भी सिद्धहस्त थे।
उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं:-
नाटक:- (1) ‘नये रिफारमर’ या ‘नवीन सुधारक’ (सन् 1911 ई.), (2) ‘धर्म की धुरी’ (सन् 1952 ई.), (3) ‘अपना पराया’ (सन् 1953 ई.) और (4) ‘नजर बदली बदल गये नजारे’ (सन् 1961 ई.)।
कहानी संग्रह:- ‘कुसुमांजली’ (सन् 1912 ई.)। लघु उपन्यास:- (1) ‘नवजीवन’ (सन् 1912 ई), (2) ‘तरंग’ (सन् 1920 ई.), (3) ‘माया मिली न राम’ (सन् 1936 ई.), (4) ‘मॉडर्न कौन, सुंदर कौन’ (सन् 1964 ई.), और (5) ‘अपनी-अपनी नजर’, ‘अपनी-अपनी डगर’ (सन् 1966 ई.)।
उपन्यास:- (1) ‘राम-रहीम’ (सन् 1936 ई.), (2) ‘पुरुष और नारी’ (सन् 1939 ई.), (3) ‘सूरदास’ (सन् 1942 ई.), (4) ‘संस्कार’ (सन् 1944 ई.), (5) ‘पूरब और पश्चिम’ (सन् 1951 ई.), (6) ‘चुंबन और चाँटा’ (सन् 1957 ई.)
कहानियाँ:- (1) ‘गाँधी टोपी’ (सन् 1938 ई.), (2) ‘सावनी समाँ’ (सन् 1938 ई.), (3) ‘नारी क्या एक पहेली? (सन् 1951 ई.), (4) ‘हवेली और झोपड़ी’ (सन् 1951 ई.), (5) ‘देव और दानव’ (सन् 1951 ई.), (6) ‘वे और हम’ (सन् 1956 ई.), (7) ‘धर्म और मर्म’ (सन् 1959 ई.) (8) ‘तब और अब’ (सन् 1958 ई.), (9) ‘अबला क्या ऐसी सबला?’ (सन् 1962 ई.), (10) ‘बिखरे मोती’ (भाग-1) (सन् 1965 ई.)।
संस्मरण:- (1) ‘टूटा तारा’ (1941), (2) ‘बिखरे मोती’ (भाग-2, 3) (1966)।
बिहार की प्रसिद्ध मासिक हिंदी पत्रिका ‘नई-धारा’ राधिकारमण प्रसाद सिंह के ही संरक्षण में प्रकाशित होती रही। 23 जनवरी 1969 ई. को मगध विश्वविद्यालय ने उनको सम्मानक डॉक्टरेट की उपाधि दी थी। सन् 1962 ई. में भारत सरकार ने पद्मभूषण की उपाधि से तथा प्रयाग हिंदी साहित्य सम्मेलन ने सन् 1970 ई. में ‘साहित्यवाचस्पति की उपाधि से अलंकृत किया। 25 मार्च, सन् 1971 ई. को वे परलोकगामी हुए।