आज हीं के दिन 12 अगस्त 1927 को बिहार के तत्कालीन शाहाबाद जिले में एक ऐसा बालक ने जन्म लिया था, जिसके आवाज मात्र से हीं चीन को डर लगता था. वह व्यक्ति थे रामेश्वर सिंह कश्यप उर्फ लोहा सिंह. सासाराम से करीब पांच किलोमीटर उत्तर सेमरा गांव निवासी वरीय पुलिस पदाधिकारी राय बहादूर जानकी सिंह और माता रामसखी के पुत्र रामेश्वर सिंह कश्यप, जो अग्रेंजी हुकूमत के पुलिस पदाधिकारी का पुत्र होने के बावजूद अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत कर दी थी. इसके चलते उन्हें विद्यालय से निकाला भी गया था.
1948 में आकाशवाणी, पटना की शुरुआत हुई, तो चौपाल कार्यक्रम में ‘तपेश्वर भाई’ के रूप में वह भाग लेने लगे. वार्ताकार, नाटककार, कहानीकार और कवि के रूप में सैकड़ों विविध रचनाओं में भी उनकी सहभागिता रही. साहित्य, ज्योत्सना, नयी धारा, दृष्टिकोण, प्रपंच, भारती, आर्यावर्त, धर्मयुग, इलस्ट्रेट वीकली, रंग, कहानी अभिव्यक्ति, नवभारत टाइम्स जैसी पत्रिकाओं में उनके कई निबंध, कहानियां, कविताएं, आलोचनाएं और एकांकी प्रकाशित हुए. 1962 में चीन और भारत के बीच युद्ध के दौरान रामेश्वर सिंह कश्यप ने आकाशवाणी पर प्रसारित होने वाले हास्य और व्यंग्य नाटक ‘लोहा सिंह’ में लोहा सिंह के किरदार निभाते हुए भारतीय सैनिकों में जोश भरते थे. उनका नाटक सीमा पर लड़ रहे सैनिकों का हौसला अफजाई करता था तो आम लोगो में राष्ट्रीय चेतना का भाव भी पैदा करता था. जिससे चाइना तिलमिला गया. रेडियो पेइचिंग से कई बार प्रसारण कर कहा गया – ‘भारत ने आकाशवाणी पटना में एक भैंसा पाल रखा है, जो चीन की दीवार पर सिंग मार रहा है.’
जब आकाशवाणी पटना से लोहा सिंह नाटक का प्रसारण होता था तो सड़कें, गलियाँ सूनी हो जाती थीं. जिनके पास रेडियो होता था उनके घरों में लोगों का जमवाड़ा हो जाता था. विदेशों में भी इस नाटक की बहुत माँग थी. लन्दन काउन्टी काउंसिल, नेपाल , जोहांसवर्ग व मॉरिशियस सरकारों के अनुरोध पर नाटक लोहा सिंह के कैसेट भेजे जाते रहे हैं . Rural broadcaster नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने इसकी लोक प्रियता से प्रभावित होकर इस नाटक पर एक लेख लिखा था – About loha singh. इस व्यंग्य और हास्य नाटक से कश्यप जी को इतना अधिक ख्याति प्राप्त हुआ कि जेम्स बॉन्ड की तरह उनका असली नाम गुमनामी में चला गया तथा लोहा सिंह से हीं वो प्रसिद्ध हो गये. उनका नाटक भले हीं हास्य-व्यंग्य के होता था, परन्तु वह केवल मनोरंजन का साधन नहीं होता था, बल्कि समाजिक, धार्मिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक विकृतियों पर प्रहार किया करता था. अशिक्षा, बाल विवाह, छुआ-छूत की बुराई आदि पर प्रहार के लिए वे ऐसे भाषा का प्रयोग करते थे जिससे अशिक्षित वर्ग के लोगों में भी आसानी से दिमाग में असर कर जाए.
लोहा सिंह की शिक्षा-दीक्षा मुंगेर, नवगछिया और इलाहाबाद में हुई. 1950 में बिहार नेशनल कॉलेज पटना में हिन्दी व्याख्याता के पद योगदान दिये तथा 1968 से लेकर 1989 तक यानि 21 वर्ष शान्ति प्रसाद जैन महाविद्यालय सासाराम में प्रधानाचार्य रहे. वे भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष भी रहे. उन्हें पदम् श्री, बिहार गौरव, बिहार रत्न सहित कई सम्मान प्राप्त हुआ. स्वर्ण रेखा, लोहा सिंह, काया पलट, उलट फेर, नीलकंठ निराला, अपराजेय निराला, बेकारी का इलाज, समाधान आदि कई इनकी रचनाएँ है. अकिल के अलमारी, बुद्धि के बटलोही, पंडिताई के पिस्तौल जैसे खांटी भोजपुरी शब्दों का समिश्रण उनके रचनाओं में देखने को मिलता है. 24 अक्टूबर 1992 को इनका आकस्मिक निधन हो गया.